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* २३२ 3 कर्मविज्ञान : भाग ८ *
संत कवीर ने वर्तमान युग में सस्ती भक्ति से परमात्मा को रिझाने वाले लोगों को सच्ची भक्ति का सूत्र बताते हुए कहा है
“भक्ति भगवन्त की बहुत बारीक है, शीश सौंप्या विना भक्ति नांही। . नाचना कूदना, ताल का पीटना, रांडिया खेल का काम नाही॥ कहत कबीर' सूरत एकत्व है, जीवता मरे सोही भक्त भाई॥"
इससे स्पष्ट है कि परमात्म-भक्ति किसी लौकिक-भौतिक लाभ या स्वार्थ की, या प्रसिद्धि, वाहवाही या कीर्ति की लालसा से या विषयों की प्राप्ति की आशा से. करना कथमपि उचित नहीं, यह भक्ति नहीं, भक्ति का नाटक है। ऐसी तामसिक अन्ध-भक्ति तो सर्वथा त्याज्य है
इसी प्रकार परमात्मा की या किसी इष्ट देवी-देव की भक्ति के नाम पर निर्दोष पशुओं का वध करना, बलि या कुर्बानी देना, मदिरा या मादक वस्तुएँ खा-पीकर नाचना, देवदासियाँ बनाकर व्यभिचार-लीला फैलाना या निर्दोष मानवों पर अत्याचार करना, रक्तपात व कत्लेआम करना, जबरन धर्म-परिवर्तन कराना अथवा स्वर्ग की हुंडी लिखकर भोलीभाली जनता से धन ऐंठना, ये सब क्रूरकाण्ड करना और बाहर से भक्ति का दिखावा या ढोंग करना, तामसिक या अन्ध-भक्ति है। ऐसी अन्ध-भक्ति से मनुष्य कर्मक्षय करने के बदले घोर कर्मबन्ध करके जन्म-मरणादिरूप संसार की भूलभुलैया में ही भटकता रहता है। जैन और वैदिकादि परम्परा की परमात्म-भक्ति में मूलभूत अन्तर
अतः भगवान या परमात्मा की भक्ति के रूप में जैन और वैदिक परम्परा में मूलभूत अन्तर यह है कि जैन-परम्परा ईश्वर या परमात्मा को अनन्त ज्ञान-दर्शनआनन्द-शक्ति से सम्पन्न मानते हुए भी उसे जगत् का कर्ता-धर्ता-संहर्ता नहीं मानती, जबकि वैदिक-परम्परा ईश्वर को जगत् का कर्ता-धर्ता-संहर्ता मानती है। ईश्वरकर्तृत्ववादी परम्परा की परमात्म-भक्ति : पराश्रयी और परापेक्ष ___ जैसे बचपन में बालक की वृत्ति-प्रवृत्ति पराधीन-परापेक्षी रहती है। प्रारम्भ में चलने, खाना खिलाने-पिलाने, नहलाने-धुलाने आदि प्रायः प्रत्येक प्रवृत्ति की पूर्ति के लिए बालक माँ या किसी भी अन्य अभिभावक के सहारे की अपेक्षा रखता है, वह पराश्रित रहता है। इसी प्रकार वैदिकादि ईश्वर कर्तृत्ववादी परम्परा का भक्त भगवान के समक्ष बालक की तरह बेसहारा होकर प्रत्येक छोटी-बड़ी प्रवृत्ति के
१. 'कबीर की साखी' से भाव ग्रहण २. 'पानी में मीन पियासी' से भाव ग्रहण, पृ. २८०
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