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* भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं ? * २२९ *
परमात्म-भक्ति में भक्त के जीवन-परिवर्तन का अपूर्व सामर्थ्य अन्य जैन-ग्रन्थों में भी कहा गया है-“जिनेश्वरवीतरागदेवों की भक्ति से पूर्वोपार्जित संचित कार्यों का क्षय हो जाता है, क्योंकि आत्मिक-गुणों में उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त परमात्मा का बहुमान (भक्ति) कर्मरूपी वन को जलाने में दावानल के समान है।" निष्कर्ष यह है कि ज्ञानादि समस्त श्रेष्ठ साधनाओं का विकास भी भक्ति की भव्य-शक्ति के द्वारा ही होता है। परमात्म-भावना का अनमोल बीज भी भक्ति में है। ऐसी अटल, अनिर्वचनीय एवं प्रभावशाली भक्ति, शक्ति, युक्ति और मंगलमयी मुक्ति को प्राप्त करा देने की सामर्थ्य है। यह बाह्य-दशा से आभ्यन्तर-दशा प्राप्त कराकर परमात्म-दशा की ओर ले जाती है। कहना होगा कि भक्ति में भवभ्रमण का अन्त करने की शक्ति है, साथ ही उसमें सामर्थ्य है-स्वरूप में अवस्थिति कराने की। यह क्रमशः अशुभ से शुभ में और शुभ से शुद्धता में ले जाने वाली है। सचमुच, भक्ति के प्रबल प्रभाव से व्यक्ति के जीवन का कायापलट हो जाता है।'
- ऐसे उदासीन या विमुख परमात्मा की भक्ति क्यों करें ? कोई कह सकता है कि जैन-सिद्धान्त की दृष्टि से निरंजन, निराकार, विदेहमुक्त, सिद्ध परमात्मा या जीवन्मुक्ति अरिहन्त परमात्मा वीतराग होने के कारण कुछ भी देते-लेते नहीं हैं। वे न तो किसी को वरदान या आशीर्वाद देते हैं और न ही किसी को शाप। वे न तो किसी को सुखी या दुःखी करते हैं और न ही किसी को धनी या निर्धन, विद्वान् या मूर्ख अथवा मनुष्य, तिर्यञ्च, नारक या देव बनाते हैं। जैनदर्शन आत्मिक ऐश्वर्य-सम्पन्न वीतराग परमात्मा को जगत् का कर्ता-हर्ता-धर्ता नहीं मानता, न ही जैनदृष्टिमान्य ईश्वर किसी के कर्म का फल लेते-देते हैं। जैनदृष्टिमान्य परमात्मा या ईश्वर किसी के द्वारा स्तुति, गुणगान या प्रशंसा करने से न तो प्रसन्न होकर किसी को वरदान, आशीर्वाद, पापमाफी आदि देते हैं और न ही निन्दा, आलोचना या आक्षेप-अपशब्द से नाराज होकर किसी को 'शाप देते हैं, न ही उसका अहित या नुकसान करते हैं, न ही उस पर शास्त्र-प्रहार करते हैं, न वे क्षति, हानि पहुंचाते हैं। चोरी, ठगी, लूटपाट आदि पापकर्मों के करने वालों को वीतराग परमात्मा दण्ड नहीं देते और न ही सज्जनों, धर्मिष्ठ पुरुषों आदि को पुरस्कार, पद, प्रतिष्ठा, सत्ता या धन देते-दिलाते हैं। ___ परमात्म-भक्ति का वास्तविक स्वरूप और उद्देश्य न समझने वाले अधिकांश लोग कह दिया करते हैं-जब परमात्मा हमें संसार के नाना दुःखों से छुटकारा नहीं १. (क) भत्तीए जिणवराणं खिज्जति पुव्वसंचियकम्मा।
गुण-पगरिस-बहुमाणो, कम्म-वण-दवाणला जेण॥ -आवश्यकनियुक्ति ___ (ख) 'मिले मन भीतर भगवान' (विजयकलापूर्णसूरि जी म.) से भाव ग्रहण, पृ. ४३
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