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२२० कर्मविज्ञान : भाग ८
भावविशुद्ध हों, वहाँ कर्मोपचय नहीं होता, यह तथ्य युक्ति-विरुद्ध है
आगे उन्होंने कहा–“जहाँ राग-द्वेषरहित बुद्धि से कोई प्रवृत्ति होती है, ऐसी स्थिति में जहाँ केवल विशुद्ध मन से या केवल शरीर से प्राणातिपात हो जाता है, वहाँ भावविशुद्धि होने से कर्मोपचय नहीं होता, इससे जीव निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त होता है।” बौद्ध दार्शनिक कथन का सारांश यह है कि " जो पुरुष किसी भी निमित्त से किसी प्राणी पर द्वेष या हिंसा में प्रवृत्त नहीं होता, वह विशुद्ध है। उस व्यक्ति को पापकर्म का बन्ध (उपचय) नहीं होता ।" यह कथन जैन- कर्मविज्ञान की दृष्टि से सिद्धान्त और युक्ति से विरुद्ध है। जानकर हिंसा करने से पहले. राग-द्वेषयुक्त भाव न आएँ, यह सम्भव नहीं है । भाव-हिंसा तभी होती है, जब मन में जरा भी राग-द्वेष या कषाय के भाव आएँ । वस्तुतः कर्म के उपचय (वन्ध) करने में मन ही तो प्रधान कारण है। जिसे 'धम्मपद' में भी माना है। उन्हीं के धर्मग्रन्थ में बताया है-“ राग-द्वेषादि क्लेशों से वासित चित्त ही ( कर्मबन्धनरूप) संसार है और वही रागादि क्लेशों से मुक्त चित्त ही संसार का अन्त मोक्ष कहलाता है।" बौद्धों के द्वारा दृष्टान्त देकर यह सिद्ध करना कि विपत्ति के समय पिता द्वारा पुत्र का वध करना उसे मारकर स्वयं खा जाना तथा मेधावी भिक्षु द्वारा उक्त माँस भिक्षा में प्राप्त करके खा जाना पापकर्मबन्ध का कारण नहीं है, बिलकुल असंगत है। राग-द्वेष से क्लिष्ट चित्त हुए बिना मारने का परिणाम हो ही नहीं सकता। उपर्युक्त दूषित चित्त - परिणाम को असंक्लिष्ट कौन मान सकता है ? तथैव पूर्वोक्त चतुर्विध कर्म भी संयम, यतना, संवर और अप्रमाद के विचार से न हों तो वे भी कर्मोपचय के कारण होते ही हैं । '
१. (क) देखें - इस सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण एवं बौद्धग्रन्थ-प्रमाण के लिये सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. १, उ. २, गा. २४-२९, विवेचन ( आ. प्र. स., व्यावर), पृ. ५५-६१
(ख) सूत्रकृतांग, शीलांक वृत्ति, पत्रांक ३१-४०
(ग) सूयगडंग चूर्णि (मू. पा. टिप्पण), पृ. ९७, ९
(घ) दशवैकालिक, अ. ४, गा. ८ (ङ) चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम्। तदैव तैर्विनिर्युक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥
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