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भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं? 8 २२५
मनुष्य उन्मत्त हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है और आत्माराम हो जाता है।' योगीश्वर आनन्दघन जी ने ऋषभदेव भगवान की स्तुति करते हुए कहा है
"प्रीत सगाई रे जगमां सहु करे, प्रीत सगाई न कोय। प्रीत सगाई रे निरुपाधिक कही, सोपाधिक धन खोय॥" परमात्म-भक्ति के अमृत के आस्वाद में मस्त आकांक्षाओं पर नियंत्रण इन्द्रिय-विषयों के स्वाद ऐसे है, जो एक बार चख लेता है, उसे बार-बार उसी चेष्टा के लिए वे खींचते रहते हैं। इसी प्रकार पद, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, प्रशंसा, अधिकार, सत्ता आदि के स्वाद भी एक वार तृप्त होने से ही समाप्त नहीं होते, वे दिनानुदिन अधिकाधिक तीव्र होते चले जाते हैं। अनादिकालीन संस्कारवश उनकी भूख और माँग अनियंत्रित और तीव्र बनती जाती है। इसी प्रकार कषायों और राग-द्वेषों का रस भी तीव्रतर होता जाता है। वासना, तृष्णा, अहंता-ममता, आसक्ति आदि की पूर्ति के लिए सामान्य मानव की समस्त बौद्धिक, मानसिक, वाचिक और कायिक गतिविधियाँ सक्रिय रहती हैं। किन्तु जिसे परमात्म-भक्ति के अमृत का आस्वाद मिल जाता है, वह उससे तृप्त होकर इन्द्रिय-विषयों का उपभोग करता हुआ भी राग-द्वेष या कषायों से अलिप्त रहता है अथवा उन पर नियंत्रण कर लेता है अथवा उसे इतनी आत्मिक-तृप्ति मिल जाती है कि उसके जीवन में विषय-कषायों पर या राग-द्वेषादि पर नियंत्रण आ जाता है। परमात्म-भक्ति के रस में इतना मस्त-मग्न हो जाता है कि वह शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, वैषयिक, आकांक्षाओं पर भी अधिकाधिक नियंत्रण कर लेता है। वस्तुतः परमात्म-प्रीति की सार्थकता, पराकाष्ठा, उदात्तता या सरसता परमात्म-भक्ति में होती है।
परमात्म-भक्ति से सार्थक आत्म-शक्ति, मनःशक्ति प्राप्त होती है इसलिए आत्मा को परमात्मा से जोड़ने वाली यदि कोई सरल, सरस, उदात्त और सार्थक शक्ति है, तो वह भक्ति है। भक्ति में असत् से सत् की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर तथा मर्त्यत्व से अमरत्व की ओर ले जाने की शक्ति है। परमात्म-भक्तिमान् मनुष्य को कोई भी कष्ट, दुःख, विपत्ति, पीड़ा आदि भावरूप नहीं लगती।
१. सा त्वस्मिन् परम-प्रेमरूपा ॥२॥
अमृतस्वरूपा च ॥३॥ यल्लब्ध्वापुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति॥४॥ यत्प्राप्य न किंचिदपि वांछति, न शोचति, न द्वेष्टि, न रमते, नोत्साही भवति॥५॥
यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति, स्तब्धो भवति, आत्मारामो भवति॥६॥ -नारदभक्तिसूत्र २. देखें-वैदिक प्रार्थना-असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतंगमय। ३. 'ऋषभजिन स्तवन' (आनन्दघन जी कृत) से भाव ग्रहण
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