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भक्ति से सर्वकर्ममुक्तिः कैसे और कैसे नहीं ?
विस्मृत परमात्म-तत्त्व को पुनः पाने का उपाय परमात्म-भक्ति है
हमारी आत्मा अनन्त-अनन्त काल से, परमात्म-तत्त्व से, वीतरागता से तथा अपने स्वरूप से पराङ्मुखं हो रही है । वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर संसार की, विषय-वासनाओं की, भौतिकता की, पर भावों की मोहक भूलभुलैया में फँसकर दुःख, कष्ट और यातनाएँ पाती रही है । कर्मपरवश होकर अनेक पीड़ाओं और यातनाओं से त्रस्त होती रही है, नाना गतियों और योनियों में जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि आदि के दुःखों को भोगती रही है। संसार में उसे जो सुख और आनन्द की अनुभूति हो रही हैं, वह वास्तविक नहीं है, उसके साथ अनेक दुःख लगे हुए हैं, वह क्षणिक है, अस्थायी है, उस वैषयिक और पदार्थनिष्ठ सुख में दुःख के बीज छिपे हुए होते हैं। इसलिए कोई ऐसा उपाय होना चाहिए जिससे मनुष्य वास्तविक सुख और आनन्द पा सके; सर्वकर्ममुक्ति का अथवा आंशिक मुक्ति का आनन्द उपलब्ध कर सके। वह सरल, सुलभ, स्वयं करणीय उपाय हैपरमात्म-भक्ति।
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परमात्म-भक्ति से स्व-स्वभाव-परिवर्तन
परमात्म-भक्ति से उसे विषय-वासनाजनित कृत्रिम सुख से विरक्ति होगी । भक्ति की तीव्रता-मंदता के अनुरूप उसके अशुभ कर्मों या पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय होने से उसे जो वर्तमान जन्म में दु:ख, यातनाएँ या विपत्तियाँ भोगनी पड़तीं, वे नहीं भोगनी पड़ेंगी अथवा कदाचित् भोगनी भी पड़ें तो वह समभाव' या शक्ति और धैर्य से भोगकर उन गाढ़ बन्धनों से बद्ध कर्मों का भी क्षय कर सका अथवा उसे उन दुःखों को समभाव से भोगने में किसी दुःख, कष्ट या अस का अनुभव नहीं होगा। परमात्मा वीतराग ने जैसे अपने जीवन में अपने पूर्व-वश उदय में आये हुए कष्टों को, दुःखों को समभावपूर्वक शान्ति से भोगा था वैसे ही भोग सकेगा। इसलिए प्रत्येक आत्मार्थी, मुमुक्षु या अध्यात्म-पिपासु को अनी वर्तमान दुःस्थिति से ऊपर उठकर सुस्थित मनःस्थिति में परिवर्तित करने के लिए परमात्म-भक्ति की अनिवार्य आवश्यकता है।
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