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४ २०६ ४ कर्मविज्ञान : भाग ८
प्रमाद या अज्ञानवश दोष लगता है तो प्रायश्चित्त द्वारा उसकी शुद्धि करते हैं, स्व-पर के भेदविज्ञान से वह ज्ञाता द्रष्टा बनने का अभ्यास करता है। इस प्रकार भिन्न विषय वाले श्रद्धान - ज्ञान - चारित्र के द्वारा यानी भेदरत्नत्रय के द्वारा अपनी आत्मा में कुछ-कुछ विशुद्धि प्राप्त करके निश्चयनय के विषयभूत अभेद रत्नत्रयात्मक निज आत्मा में क्रमशः स्थिर होता हुआ परम वीतराग भाव को प्राप्त करके साक्षात् मोक्ष का अनुभव कर पाता है।
वास्तव में जो महाभाग मुमुक्षु पुनः पुनः जन्म मरण को नष्ट कर देने के लिए सतत अध्यात्म-विकास के लिए उद्यत रहते हुए निश्चय और व्यवहार दोनों में से किसी एक का भी अवलम्बन न लेकर मध्यस्थ रहते हैं, शुद्धं चैतन्यस्वरूप आत्म-तत्त्व में स्थिरता के लिए अहर्निश सावधान रहते हुए प्रमादभाव की प्रवृत्ति को रोकने के लिए शास्त्रानुसार व्यवहारधर्म का आचरण करते हुए भी उसे महत्त्व नहींदेते; यथाशक्ति आत्मा के द्वारा आत्मा में आत्मा का संचेतन करते हैं, वे देर-सबेर संसार-समुद्र को पार करके मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । वे शुद्धोपयोग रूप ज्ञानचेतना में स्थित रहने का प्रयत्न करते हैं। ज्ञान के सिवाय अन्य भावों में ऐसा अनुभव करना कि मैं कर्त्ता हूँ, कर्मचेतना हूँ और ज्ञान के सिवाय अन्य भावों में यह अनुभव करना कि मैं भोक्ता हूँ इसका कर्मफलचेतना है । ज्ञानचेतना का सहभाव शुद्धोपयोग के साथ है, किन्तु कर्मचेतना और कर्मफलचेतना का सहभाव शुभ-अशुभ उपयोग के साथ है। शुद्धोपयोग युक्त आत्मा ही मोक्षमार्ग की अधिकारी है। '
ये मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति आत्म-धर्म से, ज्ञान- आचरण से दूर हैं .
परन्तु जो आत्म-लक्षी रत्नत्रय की साधना नहीं करते तथा शुद्धोपयोगी होकर ज्ञानचेतना में रत रहने का पराक्रम नहीं करते, वे मोक्षमार्ग से काफी दूर हैं। वे मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति हैं।
'सन्मति तर्क' में मिथ्यात्व के ६ स्थान इस प्रकार प्रतिपादित हैं - ( 9 ) आत्मा नहीं है, (२) आत्मा नित्य नहीं है, (३) आत्मा कर्त्ता नहीं है, (४) आत्मा किसी भी कर्म का भोक्ता नहीं है, (५) मोक्ष नहीं है, एवं (६) मोक्ष का उपाय (मार्ग) नहीं है। मिथ्यात्व के इन ६ स्थानों में से वे किसी या किन्हीं स्थानों से ग्रस्त हैं । २
१. (क) 'जैनसिद्धान्त' से भाव ग्रहण, पृ. १८० 'अध्यात्म प्रवचन' से भाव ग्रहण, पृ. ११२
२. (क) णत्थि, ण णिच्चो, ण कुणइ, कथं ण वेएइ, णत्थि णिव्वाणं । थिय मोक्खोवाओ, छय मिच्छत्तस्स ठाणाई ||
(ख) नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा। वीरियं उवओगो य एवं जीवास लक्खयां ॥
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-सन्मति तर्क
- उत्तराध्ययन, अ. २८, गा. ११
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