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ॐ १९८ * कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
वह उपभोक्ता है, शेष संसार उपभोग्य है। तभी ज्ञेय की या उपभोग्य की सार्थकता
और सफलता है। उसी आत्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्र का भलीभाँति परिज्ञान करके ही आत्मा सभी बन्धों को काटकर शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर सकता है।' आत्मा अच्छा-बुरा, पुण्य-पाप करने में स्वतंत्र
इस अनन्त विश्व में जीव शुभाशुभ कर्म करने, न करने में स्वतंत्र है। वह पुण्य भी कर सकता है और पाप भी। पुण्य करके वह देवलोक में जा सकता है
और पाप करके नरक-तिर्यंचगति में भी जा सकता है। वह संवर और निर्जरा करके मोक्ष में भी जा सकता है। इतना स्वतंत्र जीव (आत्मा) के सिवाय कोई तत्त्व या पदार्थ संसार में नहीं है। _ निष्कर्ष यह है कि मोक्षमार्ग में सबसे पहले जीव के स्वरूप को जानने-समझने
और उस पर विश्वास करने की आवश्यकता है। जीव (आत्मा) के स्वरूप का परिज्ञान और निश्चय हो जाने पर कि मैं पुद्गलों (पर-भावों = अजीवों) से भिन्न चेतन तत्त्व हूँ, जड़ नहीं। शुद्ध, बुद्ध, आनन्दघन, शक्तिपुंज चैतन्य हूँ। मैं केवल आत्मा हूँ, और कुछ नहीं। मैं सदा शाश्वत हूँ, क्षणभंगुर नहीं। जन्म-मरण मेरे नहीं, ये सब शरीर के खेल हैं। __ इस प्रकार अपने स्वरूप को समझने और उस पर प्रतीति रूप दृढ़ विश्वास हो जाने के बाद अज्ञान और मिथ्यात्व का अन्धकार नहीं रह सकता। फिर वह जीव बड़े-से-बड़े बंधन को तोड़ने में सक्षम हो सकता है। जब तक 'स्व' में 'पर-बुद्धि' या 'पर' में 'स्व-बुद्धि' रहती है, तभी तक बन्धन है। जब स्व-स्वरूप (आत्मा के वास्तविक स्वरूप) को साधक समझ लेता है, तब इन दोनों विपरीत बुद्धियों से हटकर आत्मा में स्व-बुद्धि हो जाती है, इतना होते ही आस्रव और बन्ध टूटने लगते हैं, संवर और निर्जरा का दौर चल पड़ता है। मोक्ष और क्या है-स्व-स्वरूप की उपलब्धि ही मोक्ष है। जिस प्रकार संसार के दो कारण हैं-आम्रव और बन्ध उसी प्रकार मोक्ष के भी दो सहायक कारण हैं-संवर और निर्जरा। आत्मा जब स्व-स्वरूप पर दृढ़ विश्वास के साथ जाग्रत हो जाता है, तब प्रतिक्षण कषाय य राग-द्वेष-मोह आदि के कारण अथवा शुभाशुभ योग के कारण आने वाले नवीन कर्मदलिकों को रोक सकता है-संवर कर सकता है तथा पाप-पुण्यकर्मों के उदर के कारण आने वाले दुःख और सुख के भोग के समय भी वह समभाव में रहकर उनका क्षय कर सकता है। स्व-स्वरूप की प्रतीति हो जाने से वह विचारता है कि जो ये कर्मपुद्गलजनित सुख-दुःख हैं, ये मेरे ही द्वारा किये गये पूर्वकृत कर्मों के फल हैं, इन्हें समभाव से भोगने पर ही शीघ्र छुटकारा हो सकता है। इस प्रकार 'सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार-मोक्ष के प्रधान हेतु संवर और निर्जरा के किसी में १. 'अध्यात्म प्रवचन' से भाव ग्रहण, पृ. १११, ११८, ३११
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