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8 निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : क्या, क्यों और कैसे? 8 १९९ @
अवसर को न चूके तो वह स्व-पर-भेदविज्ञानयुक्त मुमुक्षु साधक हजारों-लाखों वर्षों के पुराने कर्मों के जत्थों को क्षय कर सकता है तथा मोहनीय कर्म को क्षय करने के साथ ही शेष तीन घातिकर्मों को भी वह शीघ्र क्षय कर सकता है। निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग का स्वरूप हृदयंगम कर लेने पर आत्मा को अनुभव दृष्टि से जान-समझ लेने तथा अनुभवयुक्त दृढ़ श्रद्धा-प्रतीति कर लेने से आत्मा में सर्वकर्मक्षय करने और आत्म-स्वरूप में अवस्थित रहने की शक्ति आ जाती है; शुद्ध आत्म-स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है।
आत्म-स्वरूप की उपलब्धि का रहस्य आत्म-स्वरूप की उपलब्धि का अर्थ यह नहीं होता कि वह स्वरूप पहले अन्दर में नहीं था और साधना के द्वारा कहीं बाहर से वह अन्दर आ गया। बाहर से आने वाली चीज कभी स्थायी नहीं हो पाती। मुमुक्षु साधक को जो कुछ पाना है, अपने अन्दर से ही पाना है। पाने का अर्थ इतना ही है कि आत्मा का जो शुद्ध नेमल स्वरूप कर्ममल से आवृत, सुषुप्त और मूर्च्छित था, उसे प्रकट-प्रादुर्भूत (या आविर्भूत) कर देना है।
इसका मतलब है-'स्व' से भिन्न 'पर' पर उनका विश्वास है। 'पर' को जानने-समझने में अधिक पराक्रम है। दूसरे शब्दों में कहें तो आत्मा के प्रति श्रद्धा, वेश्वास और प्रीति नहीं की। जब तक आत्मा के प्रति प्रीतिरूप निष्ठा, अनन्य श्रद्धा-भक्तिरूप सम्यग्दर्शन नहीं होगा, तब तक आत्म-ज्ञान या आत्मा का पम्यक्बोध भी नहीं हो सकेगा। सम्यक् आत्म-बोध नहीं होगा वहाँ आत्मानुकूल पम्यक्आचार या सुचारित्र भी नहीं हो सकेगा। ऐसी स्थिति में सर्वकर्मक्षयरूप मुक्ति कसे प्राप्त हो सकेगी?
.. कर्मबन्ध से छुटकारा दिलाने हेतु निश्चय मोक्षमार्ग पर दृष्टि जरूरी भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा-हे आत्मन् ! बन्ध और मोक्ष बाहर में कहीं नहीं है, वह तेरे अन्तर में है, आन्तरिक भावों-अध्यवसायों में है। यह बन्धन केसका है? आत्मा का है, तो मोक्ष भी आत्मा का ही होगा। प्रश्न होता है-बन्ध स्यों होता है, आत्मा क्यों बन्धन में स्वयं पड़ता है?
जब आत्मा स्व-स्वभाव, स्व-स्वरूप, स्व-गुण को छोड़कर उसका चेन्तन-मनन-निदिध्यासन और उसको जानने-पहचानने और उसमें रमण करने, वरूप में स्थित होने, स्व को उपलब्ध करने के पुरुषार्थ को त्यागकर या उसकी परवाह किये बिना 'पर' भावों में, विभावों में आत्म-बाह्य पदार्थों, तत्त्वों या द्रव्यों में रुचि, श्रद्धा, जानकारी या रमणता व स्थिरता करता है; तब वह आत्मा बन्धन 1. मोक्षस्य प्रधानहेतुः संवरो निर्जरा च।
-सर्वार्थसिद्धि १/४/१५/६
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