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* १८२ ® कर्मविज्ञान : भाग ८ *
इस जगत् में अथवा मोक्ष-प्राप्ति (मार्ग, उपाय या साधन) के विषय में कई स्थूलदृष्टि मतवादी इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं कि रस पर विजय पाने से सब पर विजय प्राप्त की जा सकती है। इस दृष्टि से सर्वरसों के राजा लवणपंजक (सैंधव, सौवर्चल, विड्, रोम और सामुद्र इन पाँच लवण रसों) का त्याग करने से रसमात्र का त्याग हो जाता है। अतः नमक का परित्याग करने से अवश्य ही मोक्ष-प्राप्ति होती है।
कई मतवादी शीतल (कच्चे) जल का सेवन करने से तथा कतिपय मतवादी (अग्नि में घृतादि द्रव्यों का) हवन करने से मोक्ष-प्राप्ति बतलाते हैं। कतिपय धर्म-परम्परा के लोग प्रातःकाल एवं सायंकाल जल-स्पर्श करते हुए सचित्त जलंस्नान आदि से मोक्ष-प्राप्ति बतलाते हैं। सचित्त जल-स्नान एवं जल-प्रयोग से मोक्ष नहीं होता : क्यों, किसलिए ?
मोक्ष-प्राप्ति के मार्ग (उपाय) के सन्दर्भ में वे अपनी-अपनी ओर से तर्क प्रस्तुत करते हैं। वारिभद्रक आदि भागवतधर्मी जलशौचवादियों का कथन है कि जैसे"जल में वस्त्र, शरीर एवं अंगोपांग आदि बाह्यमल-शुद्धि करने की शक्ति है, वैसे ही उसमें आन्तरिक मल को भी दूर करने की शक्ति है। इसलिए शीतल जल का स्पर्श (स्नानादि) मोक्ष का कारण (मार्ग का उपाय) है।" ..
इस मिथ्यावाद का निराकरण करते हुए कहा गया है-यदि सचित्त जल के बार-बार स्पर्श से तथा स्नानादि से सिद्धि = मुक्ति हो जाती, तब तो जल में रहने वाले मत्स्य, कच्छप, घड़ियाल, मगर, सरीसृप (जलचारी सर्प), उष्ट्र नामक जलचर एवं जलराक्षस आदि जल-जन्तु सबसे पहले मोक्ष पा लेते, परन्तु ऐसा नहीं होता। अतः मोक्षतत्त्व-पारंगत ज्ञानीजन जल-स्पर्श-जल-प्रयोग से (सर्वकर्मक्षयरूप) मोक्ष-प्राप्ति को मिथ्या कहते हैं।
केवल सचित्त जल-स्पर्श सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष का कारण नहीं है। बल्कि सचित्त जल-सेवन से जलकायिक तथा जलाश्रित त्रस जीवों का उपमर्दन (नाश) होता है। अतः जीवहिंसा से कदापि मोक्ष सम्भव नहीं है। फिर सचित्त जल में बाह्यमल को पूर्णतया क्षय करने की भी शक्ति नहीं है; तब आन्तरिक कर्ममल को साफ करने की शक्ति तो उसमें हो ही कैसे सकती है ? भावों की शुद्धि के बिना चाहे जितना १. इहेगे मूढा पवदंति मोखं, आहार-संपज्जण-वज्जणेणं।
एगे य सीतोदग-सेवणेणं, हुतेण एगे पवदंति मोक्खं ।।१२।। पओ-सिणाणा दिसु णत्थि मोक्खो। ॥ उदगेण जे सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पातं उदगं फुसंता। उदगम्स फासेण सिया य सिद्धी, सिझिंसु पाणा वहवे दगंसि॥१४॥ .
-सूत्रकृतांग, अ. ७, गा. १२-१४
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