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ॐ मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप
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भ्रान्ति-उत्पादक एवं वृद्धिवंचक अन्यतार्थिक या कतिपय स्वयथिक मोक्ष के वास्तविक मार्ग (कारणों या माधनों) से अनभिज्ञ होते हैं, इसलिए वे प्रसिद्ध ऋषि-महर्पियों के नाम के साथ कच्चं पानी, हरी वनम्पति, पंचाग्नि तप आदि के उपभोग को जोड़कर उसी को मोक्ष का कारण (साधन या मार्ग) बताते हैं। वृत्तिकार का कहना है-वे परमार्थ से अज्ञ यह नहीं जानते कि वल्कलचीरी आदि जिन ऋषियों या तापयों को सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त हुई थी; उन्हें किसी निमित्त से जाति-म्मरण आदि ज्ञान प्राप्त हुआ था, जिससे उन्हें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रतपरूप यथार्थ मोक्षमार्ग का बोध प्राप्त हो गया था, जिससे उनमें भावसाधुता (सर्वविरति-परिणामरूपा) आ गई थी। तब उन्होंने यह भलीभाँति समझ लिया था कि सर्वविरति-परिणामरूप भावलिंग के विना जीवोपमर्दक शीत-जल-वीजवनस्पति-अग्निसमारम्भ. आदि के उपयोग से सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष कथमपि प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए ऐसा प्रतिवोध हो जाने पर उन्होंने अपने पूर्व जीवन में अपनाए हुए इन सचित्त जल-बीज-वनस्पति-अग्नि आदि आरम्भों का त्याग कर दिया हो, यह बहुत सम्भव है। चूर्णिकार भी यही कहते हैं-“अज्ञ लोगों का यह कथन मिथ्या है कि इन प्रत्येक वुद्ध ऋषियों के वनवास में रहते हुए बीज (धान्यकण), हरी वनस्पति आदि के उपभोग से केवलज्ञान प्राप्त हो गया था, जैसे कि भरत चक्रवर्ती को शीशमहल में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। वे कुतीर्थी यह नहीं जानते कि किस अध्यवसाय (भाव या परिणाम) में प्रवर्तमान व्यक्ति को केवलज्ञान होता है तथा किन कारणों से सर्वकर्मक्षयरूप या स्व-स्वरूपतावस्थानरूप मोक्ष होता है? यानी किस प्रकार के रत्नत्रय से मोक्ष या सिद्धत्व प्राप्त होता है? इस सैद्धान्तिक तत्त्व को नहीं जानते हुए वे विपरीत प्ररूपणा कर देते हैं। ऐसे अज्ञानियों द्वारा महापुरुषों के नाम से फैलाई हुई गलत बातों को सुनकर अपरिपक्वबुद्धि साधक चक्कर में आ जाते हैं और उन बातों को सत्य मान लेते हैं।
सस्ते सुगम आकर्षक मोक्ष-प्राप्ति के ये मार्ग ! · मोक्ष का यात्री साधक कैसे मोक्षमार्ग के बदले संसारमार्ग में भटक या बहक जाता है ? इसकी थोड़ी-सी झाँकी ‘सूत्रकृतांगसूत्र' में दी गई है। उसका भावार्थ इस प्रकार हैपिछले पृष्ट का शेष(ङ) देखें-औपपातिकसूत्र में असिएण दविलेणं अरहता इसिणा वुइतं
कण्हे य करकंडे य अंबडे य परारसे। .. कण्हे दीवायणे चेव देवगत्ते य नारए॥ १. (क) सूत्रकृतांग, वृत्ति शीलांक, पत्रांक ९६ - (ख) सूयगडंगचूर्णि, पृ. ९६
(ग) “जैनसाहित्य का बृहत् इतिहास, भा. १' से भाव ग्रहण
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