________________
ॐ १९४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८8
निश्चय मोक्षमार्ग को पकड़ना है, न ही एकान्तरूप से व्यवहार मोक्षमार्ग को पकड़ना है। दोनों में आत्मा को ही मुख्य रूप से लक्ष्य में रखकर, आत्मा पर विश्वास एवं निष्ठा-श्रद्धा रखकर, उसी का विचार करके, उसी के अनुकूल जितना शक्य हो सके, आचरण करना। व्यवहार मोक्षमार्ग का अवलम्बन प्रारम्भिक अवस्था में ही लेना है। उच्च भूमिका पर अवरुद्ध होने के बाद उसे भी छोड़ देना है अथवा वह आलम्बन स्वतः छूट जाता है। परन्तु यह ध्यान रहे कि किसी भी अवलम्बन को लेते समय उससे कर्मक्षय होता है या नहीं? या आत्मा से कर्म पृथक होते हैं या नहीं? यह अवश्य ध्यान में लेना है।' मोक्षमार्ग में आत्मा (जीव) की ही प्रमुखता और प्राथमिकता क्यों ?
प्रश्न होता है-व्यवहार मोक्षमार्ग के लक्षण में सात या नौ तत्त्वों तथा षड्द्रव्यों पर विश्वास (श्रद्धान), उनका सम्यग्ज्ञान एवं उपादेयानुकूल आचरण को मोक्षमार्ग कहा है, फिर निश्चयदृष्टि से एकमात्र आत्मा (जीवतत्त्व) का ही विश्वास (श्रद्धान), उसी का ज्ञान (विचार) और उसी के अनुकूल आचरण पर ही जोर क्यों दिया गया है? ___ अध्यात्मतत्त्वज्ञानियों ने इसका समाधान यह किया है कि सात या नौ तत्त्वों में मुख्य तत्त्व जीव ही है। षड्द्रव्यों में भी मुख्य द्रव्य जीवास्तिकाय है और पदार्थों में प्रधान पदार्थ आत्मा (जीव) ही है। इसीलिए नव तत्त्वों में या सप्त पदार्थों में इसे सबसे पहला स्थान दिया गया है। जीव, चेतना, आत्मा या प्राणी ये सब एकार्थक शब्द हैं। इस अनन्त विश्व में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यदि कोई तत्त्व है तो वह आत्मा (जीव) ही है। समग्र अध्यात्म-साधना का सर्वोपरि चरम लक्ष्य है तो यही है कि आत्मा पर विश्वास, उसी का अनुभवात्मक ज्ञान और उसी के स्वरूप = स्वभाव की उपलब्धि या उसमें रमणता। संसार में जो कुछ भी ज्ञात या अज्ञात तत्त्व या पदार्थ हैं, उन सबका अधिष्ठाता, सबका चक्रवर्ती या आत्मिक ऐश्वर्य से सम्पन्न ईश्वर स्वयं अपने जगत् का स्रष्टा, द्रष्टा, विधाता, ब्रह्मा, विष्णु या महेश अगर कोई है तो १. 'जैनसिद्धान्त' (सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री) से भाव ग्रहण, पृ. १७७-१७९
एष ज्ञानधनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः। साध्य-साधन-भेदेन द्विधैकः समुपास्यताम्॥
-समयसार कलश समत्तं सद्दरणं भावाणं तेसिमधिगमो णाणं। चारित्तं समभावो विसयेसु विरुद्धमग्गाणं॥
-पंचास्तिकाय १७७ २. जीवाजीवासव बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्वम्।
-तत्त्वार्थसूत्र १/४ जीवाजीवा य बंधो य पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो संतेए तहिया नव।
-उत्तराध्ययन २८/१४ ३. अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः, द्रव्याणि जीवाश्च। -तत्त्वार्थ, अ. ५, सू. १-२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org