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* मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप ॐ १७९ 8
(१) दस प्रकार की समाचारी में स्थित रहे, (२) आहार आदि में गृद्धि-आसक्ति न रखे, (३) अप्रमत्त होकर अपनी आत्मा का या रत्नत्रय का संरक्षण करे, (४) गमनागमन, आसन, शयन, खानपान (भाषण एवं परिष्ठापन) में विवेक (यतना) रखे, (५) पूर्वोक्त तीन स्थानों (समितियों) अथवा इनके मन-वचन-काय-गुप्तिरूप तीन स्थानों में मुनि सतत संयत रहे, (६) क्रोध, मान, माया और लोभ ; इन चार कषायों का परित्याग करे, (७) सदा पंचसमिति से युक्त अथवा समभाव में प्रवृत्त होकर रहे, (८) प्राणातिपातादि विरमणरूप पंचमहाव्रतरूप संवरों से युक्त रहे, (९) भिक्षाजीवी साधु गार्हस्थ्य बंधनों से आसक्तिपूर्वक बँधा हुआ न रहे, (१०) मोक्ष प्राप्त होने तक संयमानुष्ठान में डटा रहे तथा प्रगति करे। इन दस विवेक-सूत्रों पर चिन्तन-मनन करके चारित्रशुद्धि के लिए पुरुषार्थ करता रहे।
मोक्षमार्ग से भ्रष्ट या विचलित करने वाले मतवादी कतिपय साधक ऐसे भी होते हैं, जिन्हें न तो कर्मबन्ध से मुक्त होने का ज्ञान है और न आते हुए नये कर्मों को रोकने का ही बोध है और न यह बोध है कि सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष किन-किन वास्तविक कारणों, साधनों या उपायों से होता है ? ऐसी स्थिति में सर्वकर्मक्षयरून या आत्मा के शुद्ध स्वरूप में अवस्थानरूप मोक्ष के यथार्थ मार्ग (साधन, कारण या उपाय) से अनभिज्ञ वे मतवादी अपने मत, पंथ या संघ में भोली जनता को आकृष्ट करने के लिये मोक्षमार्ग के नाम पर सस्ता, सुगम, सुलभ तथा प्रलोभनकारी संसार का (कर्मबन्धन का) मार्ग पकड़ा देते हैं। अथवा मोक्षमार्ग के नाम पर अन्ध-विश्वास और चमत्कार के मार्ग पर चढ़ा देते हैं, बहका देते हैं। अथवा मोक्ष के बदले स्वर्ग को ही मोक्ष का मार्ग बताकर व्यक्ति को मिथ्यात्वग्रस्त कर देते हैं। अथवा जिन पूर्वज, ऋषि-मुनियों ने प्रतिबुद्ध, विरक्त या संन्यस्त होने से पूर्व जीवनयापन के लिये अज्ञानावस्था में जिन चीजों का उपयोग किया था, अब उन प्रसिद्ध ऋषि-मुनियों की दुहाई देकर मन्द बुद्धि लोगों को गुमराह या मोक्ष के वास्तविक पथ से विचलित कर देते हैं कि अमुक-अमुक ऋषि-मुनि ने अमुक वनस्पति, सचित्त जल या कन्दमूल-फल आदि खाकर सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त की थी, इत्यादि।
जैसे कि 'सूत्रकृतांग' के तृतीय अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में कहा गया है“कई (परमार्थ से अनभिज्ञ) अज्ञजन कहते हैं-"प्राचीनकाल में (वल्कलचीरी तारायण = तारागण आदि) तपे-तपाए तपोधनी महापुरुषों ने शीतल (सचित्त) जल का सेवन करके तथा कन्दमूल-फल आदि का उपभोग करके और पंचाग्नि तप करके सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त की थी। वैदेही नमिराज ने एकमात्र आहार के त्याग से और रामगुप्त ने आहार का सेवन करके तथा वाहुक और तारायण (नारायण) ऋषि
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