________________
ॐ १८६ - कर्मविज्ञान : भाग ८ 0
मुक्ति का सस्ता नुस्खा : स्व-पर-वंचनामात्र है ___ 'सूत्रकृतांगसूत्र की शीलांक वृत्ति' के अनुसार ये वनवासी तापस, पर्वत-निवासी योगी या परिव्राजक परिवार, समाज और राष्ट्र से दायित्वों से हटकर एकान्त-साधना करते थे। वे परिवार, समाज और राष्ट्र को नैतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक मार्गदर्शन देने से भी दूर रहते थे, परन्तु (अपने जीवन-निर्वाह के लिए उनसे सहयोग एवं सेवा लेने हेतु) वे दार्शनिक (अपने सम्पर्क में आने वाले लोगों को) यही कहते थे कि हमारे दर्शन या मत को स्वीकार कर लो, तुम्हारी झटपट मुक्ति हो जायगी। इसमें तुम्हें कुछ भी त्याग, तप, संयम आदि करने की जरूरत नहीं। इस प्रकार दूसरों को आकर्षित करके अपने अनुयायी बनाने हेतु वे भोलेभाले लोगों को कहते थ.
“तपांसि यातनाश्चित्राः, संयमो भोगवंचनम्।
अग्निहोत्रादिकं कर्म, बालक्रीड़ेव लक्ष्यते॥" -विविध प्रकार के तप करना, शरीर को व्यर्थ यातना देना है, संयम धारण करना अपने आप को भोगों से वंचित करना है और अग्निहोत्रादि कर्म तो बच्चों के खेल के समान मालूम होते हैं।' केवल तत्त्वज्ञान से मुक्ति कैसे सम्भव ?
मोक्ष-प्राप्ति के सम्बन्ध में इसी से मिलता-जुलता मन्तव्य सांख्यदर्शन का है, जो केवल २५ तत्त्वों के ज्ञान-मात्र से मुक्ति मानते हैं, वहाँ न तो सम्यग्दृष्टि की आवश्यकता है, न ही सम्यकुचारित्र और सम्यकतप की। जैसा कि सांख्यकारिका की पाठर वृत्ति में कहा गया है
"पंचविंशति-तत्त्वज्ञो, यत्रकुत्राश्रमे रतः।
जटी मुण्डी शिखो वाऽपि मुच्यते नाऽत्र संशयः॥" -सांख्य-मान्य २५ तत्त्वों का ज्ञाता (ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास, इन चारों आश्रमों में से) चाहे जिस आश्रम में रत हो, वह जटाधारी हो, मुण्डित हो, शिखाधारी हो अथवा किसी भी वेश वाला हो, सर्वदुःखों से निःसंदेह मुक्त हो जाता है।
इन और एसे दार्शनिकों द्वारा सर्वदुःखमुक्तिरूप मोक्ष की प्राप्ति के झूठे आश्वासनों का ‘सूत्रकृतांगसूत्र' में सात गाथाओं द्वारा खण्डन किया गया है, जिनका भावार्थ इस प्रकार है-"वे तथाकथित दार्शनिक दुःखों के मूल स्रोत गग-द्वेष-कषायादि तथा उनसे होने वाले कर्मबन्ध एवं उसके फलस्वरूप प्राप्त जन्म, जग, मृत्यु, व्याधि एवं चातुर्गतिक रूप संसार-चक्र में परिभ्रमण, गर्भ में पुनः-पुनः आगमन और अन्य अज्ञान१. (क) सूत्रकृतांगसूत्र, शीलांक वृत्ति, पत्र २८
(ख) वहीं, अमरसुखवोधिनी व्याख्या, पृ. १२६-१२७ (ग) वही, विवेचन, श्रु. १. अ. १ (आ. प्र. स., व्यावर), पृ. ४0 (घ) वही, श्रु. १, अ. १, गा. २०-२७ (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. ४१
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org