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निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग: _क्या, क्यों और कैसे?
निश्चय मोक्षमार्ग है-आत्मा का दर्शन, ज्ञान और आचार में परिणमन जैनदर्शन ने निश्चय और व्यवहार, दोनों दृष्टियों से मोक्षमार्ग की प्ररूपणा की है। 'तत्त्वार्थसार' में मोक्षमार्ग के दो रूप बताये गये हैं। व्यवहारदृष्टि से मोक्षमार्ग का निरूपण हम पिछले निबन्ध में कर आये हैं। मुमुक्षु साधक केवल व्यवहारदृष्टि में ही अटककर न रह जाये, व्यवहार के साथ वह मौलिक निश्चयदृष्टि को साध्य मानकर चलेगा, तभी मोक्षपथ पर यथार्थरूप से चलकर पूर्वोक्त मोक्ष प्राप्त कर सकेगा। व्यवहारदृष्टि के साथ निश्चयदृष्टि क्यों आवश्यक है ? इसे हम आगे बतायेंगे। व्यवहारदृष्टि से मोक्षमार्ग है-जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान, उन पदार्थों का सम्यग्ज्ञान और उनमें से हेय तत्त्वों को छोड़कर, उपादेय तत्त्वों का आचरण करना या अहिंसादि व्रतों का पालन करना। सीधे-सादे शब्दों में, संक्षेप में कहें तो इन तीनों का समन्वय ही व्यवहार मोक्षमार्ग है। अर्थात् इन तीनों को हम क्रमशः विश्वास (श्रद्धा-प्रतीति या रुचि, ज्ञान (विचार, समझ) और आचरण (आचार या अमल) कह सकते हैं।
मोक्षमार्ग के इस लक्षण पर सहसा प्रश्न उठता है कि वस्तुतः विश्वास या श्रद्धान मूल में किस पर तथा ज्ञान या विचार किसका और आचरण या आचार किसका होना चाहिए ? अध्यात्मशास्त्र इसका यथार्थ समाधान इस प्रकार करता हैआत्मा ही सब तत्त्वों में प्रधान है, उसी को मोक्ष प्राप्त करना है, इसलिए अपनी आत्मा पर ही विश्वास करो, अपनी आत्मा को ही जानो-समझो, उसी का विचार करो और आत्मा के स्व-रूप, स्व-भाव--स्व-गुण में ही आचरण-रमण करो, आत्म-स्वरूप में ही अवस्थान करो। उसी को शुद्ध-निर्मल बनाने का पुरुषार्थ करो। दूसरे शब्दों में कहें तो-आत्मा का ही श्रद्धान, आत्मा का ही ज्ञान, आत्मा का ही आत्म-स्वरूपानुकूल आचरण मोक्षमार्ग है। ____ विभिन्न धर्मग्रन्थों में आत्म-प्रधान निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग के लक्षण
‘पंचास्तिकाय' में निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग का लक्षण इस प्रकार किया गया है-“जो आत्मा इन तीनों (सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र) द्वारा समाहित
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