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* मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप @ १८३ ॐ
शीतल जल-स्नान कर ले, उससे उसके आन्तरिक पापमल का नाश नहीं हो सकता। यदि शीतल जल ही पाप को धो डालता है, तब तो जल के प्राणियों का सदैव घात करने वाले तथा जल में ही अवगाहन करके रहने वाले पापी मछुओं तथा पापकर्म करने वाले अन्य प्राणियों के जल-स्नान करने से उन्हें शीघ्र मोक्ष प्राप्त हो जायेगा। उनके सभी पापकर्म धुल जायेंगे। फिर तो नरक आदि लोक में कोई भी पापी नहीं रहेगा। मगर ऐसा होना असम्भव है। यदि जल-स्नान से ही मोक्ष मिल जाता, तब तो जल में ही अहर्निश करने वाले सभी जलचर प्राणियों को, मनुष्यों से पहले ही मोक्ष प्राप्त हो जाना चाहिए। इसलिए यह मान्यता मिथ्या है, मनगढ़ंत है; अयुक्तिक है। उनके मतानुसार जल पापकर्म (अशुभ कर्म) मल का हरण करता है, वैसे पुण्य (शुभ कर्म) का हरण कर डालेगा। ऐसी स्थिति में जल से पाप की तरह पुण्य भी धुलकर साफ हो जायेगा और एक दिन मोक्ष के लिए किये जाने वाले अनुष्ठानों को भी वह धोकर साफ कर देगा। ऐसी स्थिति में सचित्त जल-स्पर्श मोक्ष-साधक होने के बदले मोक्ष-बाधक के विपरीत .सिद्ध होगा। अतः जितना अधिक जल-स्पर्श होगा, उतना ही अधिक जलकायिक और तदाश्रित अनेक त्रस-प्राणियों का हनन (घात) हो जायेगा। अतः सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र की साधना ही मोक्ष का मार्ग है, सचित्त जल-प्रयोग नहीं।'
अग्निहोत्र क्रिया से भी मोक्ष-प्राप्ति नहीं होती अग्निहोत्री मीमांसक आदि का कथन है-अग्नि जैसे बाह्य दव्यों को जला देती है, वैसे ही उसमें घी होमने से वह आन्तरिक पापकर्मों को भी जला देती है। जैसा कि श्रुति (वेद) वचन है-“स्वर्ग की कामना करने वाला अग्निहोत्र करे।” इस प्रकार अग्नि-हवन से स्वर्ग-प्राप्ति के अतिरिक्त निष्कामभाव से किये जाने वाले अग्निहोत्र (पंचाग्नि तप) आदि कर्म को मोक्ष का भी प्रयोजक मानते हैं। इस युक्ति-विरुद्ध मन्तव्य का खण्डन करते हुए ‘सूत्रकृतांगसूत्र' में कहा गया है-“एवं सिया सिद्धि कुकम्मिणं पि।'' इसका आशय यह है कि यदि अग्नि में द्रव्यों के डालने से या अग्नि-स्पर्श से मोक्ष मिलता हो, तब तो आग जलाकर कोयला बनाने वाले या कुम्भकार, लुहार, सुनार, हलवाई आदि समस्त अग्निकाय का समारम्भ
१. मच्छा य कुम्मा य सिरीसिवा य, मग्गू य उट्टा दगरक्खसाय।
अट्ठाणमेयं कुसला वदंति, उदगेण जे सिद्धि मुदाहरंति॥१५॥ उदगं जती कम्ममलं हरेज्जा, एवं सुहं इच्छामेत्तता वा। अंधव्व णेयारमणुस्सरित्ता, पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा ॥१६॥ पावाणि कम्माणि पकुव्वतो हि, सीयोदगं तु जइ तं हरेज्जा। सिझिंसु एगे दगसत्तघाती, मुसं वयंते जलसिद्धिमाहु ।।१७।।
- -सूत्रकृतांग, अ. ७, सू. १५-१७, विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. ३३५-३३८
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