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ॐ १७४ @ कर्मविज्ञान : भाग ८ :
एवं चारण की उपमा देकर अपने ही तप को विशिष्ट मानते हैं। विवेकपूर्वक विचार करें तो दोनों का एकान्तवाद मिथ्या है, दोनों का अपना-अपना गर्व, अभिमान और स्व-प्रशंसा गुण को अवगुण बना देते हैं। उत्तगध्ययन' आदि आगमों में अकेले ज्ञान को मोक्षमार्ग नहीं कहा है, बल्कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इन चारों को समन्वित रूप से मोक्षमार्ग वताया है। भगवतीसूत्र में कहा है जीव, अर्जीव, त्रस, स्थावर; इन चारों को भलीभाँति जाने विना कोई प्रत्याख्यान करता है, उसका वह प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है। इन चारों का ज्ञानपूर्वक प्रत्याख्यान करना मुप्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान भी एक प्रकार का तप है। अतः तप करने वाले को सम्याज्ञान होना ही चाहिए। ‘मोक्षपाहुड' में कहा गया है-जो ज्ञान तपरहित है तथा जो तप ज्ञानर्गहत है, ये दोनों ही अनर्थकारी हैं। अतः ज्ञान और तप दोनों के संयुक्त होने में ही निर्वाण, प्राप्त होता है। चारित्र से आते हुए कर्मों का निरोध करे, तभी तप से कर्मों का क्षय किया जा सकता है। इन सब का मूल हेतु ज्ञान है। ज्ञान (सम्यक्) हो तभी तप और चारित्र की सफलता है। ज्ञानरहित वाह्य-आभ्यन्तर तप से केवल शरीर को सुखाना है। इसीलिए कहा गया है-"ज्ञानमेव बुधाः प्राहः कर्मणां-तपनात्तपः।' तत्त्वज्ञों ने कहा कि कर्मों को तपाने वाला होने से ज्ञान ही तप है। ज्ञान और क्रिया दोनों संयुक्त होने पर मोक्ष के साधन हैं ..
कहीं-कहीं "ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षः।"-ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष होता है। यह कहकर दर्शन को ज्ञान में और चारित्र तथा तप को क्रिया में अन्तर्भूत कर लिया गया है। इस दृष्टि से ज्ञान और क्रिया दोनों के साथ-साथ रहने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसके समर्थन में कहा गया है-क्रियाहीन (आचरणहीन) कोरा ज्ञान निष्फल है और अज्ञानियों की (ज्ञानहीन) क्रिया निष्फल है। एक-एक चक्र से रथ नहीं चलता, दो चक्रों से ही चलता है। अतः ज्ञान और क्रिया दोनों का संयोग ही कार्यकारी है। दावानल से व्याप्त जंगल में अन्धा और लँगड़ा दोनों अलग-अलग हों तो अन्धा व्यक्ति भागता तो है, लेकिन देख न सकने के कारण जल जाता है और लँगड़ा देखता हुआ भी चल नहीं पाता, इसलिए जल जाता है। यदि अन्धा और लँगड़ा दोनों मिल जाएँ और अन्धा अपने कंधे पर लँगड़े को विठा ले, तो दोनों ही वन से सुरक्षित निकलकर अपने अभीष्ट गन्तव्य स्थान तक पहुँच सकते हैं। इसी प्रकार की स्थिति होने पर ज्ञाननेत्रविहीन अन्धे के कन्धे पर बैठा हुआ क्रियाचरणविहीन लँगड़ा रास्ता बताता हुआ ज्ञान का कार्य कर सकता है और ज्ञाननेत्रविहीन अन्धा चलता हुआ चारित्र का कार्य कर सकता है। इस प्रकार दोनों (ज्ञान-क्रिया) मिलकर मोक्षरूपी गन्तव्य ग्थान (साध्य) तक पहुँच सकते हैं।' १. (क) प्रश्नोत्तर मोहनमाला, भा. २. पृ. ८५-८६ (ख) नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। ___ एस मग्गुत्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं॥
-उत्तरा. २८/२
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