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8 १७६ ® कर्मविज्ञान : भाग ८ 8
मोक्ष-साधक चारित्र गुणों के विषय में त्रैकालिक तीर्थंकरों का एकमन
यही कारण है कि 'सूत्रकृतांगसूत्र' के द्वितीय अध्ययन के तृतीय उद्देशक में मुख्य रूप से सम्यक्चारित्र को मोक्षमार्ग का प्रधान अंग मानकर दो गाथाओं द्वारा मोक्ष-साधक गुणों में सभी सर्वज्ञ तीर्थंकरों की एकवाक्यता बताते हुए कहा है“भिक्षुओ ! पूर्वकाल में जो भी सर्वज्ञ हो चुके हैं, भविष्य में जो भी होंगे, उन सुव्रत पुरुषों ने इन्हीं गुणों का (मोक्ष-साधन) कहा है। काश्यपगोत्रीय भगवान . महावीर और भगवान ऋषभदेव के धर्मानुगामी साधकों ने भी यही कहा है। निष्कर्ष यह है कि सम्यग्दर्शन ज्ञानयुक्त चारित्र गुणों से अतीत में अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं, भविष्य में भी होंगे और (चूर्णिकार के अनुसार) वर्तमान में भी संख्यात जीव सिद्ध होते हैं। यहाँ सर्वचारित्र सम्बन्धी मुख्य गुणों का उल्लेख किया गया है(१) त्रिविधयोग से अहिंसा का पालन करे, (२) आत्म-हित में तत्पर रहे, (३) (स्वर्गादि सुखभोग-प्राप्ति की वाञ्छारूप) निदान से मुक्त रहे, (४) संवृत (पाँच संवर से युक्त या त्रिविधगुप्ति से मुक्त) रहे।
'सूत्रकृतांग' के मार्ग नामक अध्ययन में सम्यक्चारित्र को मोक्ष (भाव) मार्ग का प्रधान अंग मानकर १३ साधना-सूत्रों का निर्देश किया गया है, जिसे हम पिछले पृष्ठों में अंकित कर चुके हैं।' सम्यक्चारित्र के व्यवहारदृष्टि से लक्षण
'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में सम्यक्चारित्र के दो लक्षण मिलते हैं(१) हिंसादि निवृत्तिरूप आचरण चारित्र है, (२) हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह, इन पाप-प्रणालियों से विरति साधक का चारित्र है। इसी प्रकार 'भगवती आराधना टीका' के अनुसार-मन-वचन-काया से कर्तव्य का और संवर के कारणों का उपादान तथा गुप्ति, समिति, दशविध धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषह-विजय का उपादान चारित्र है। 'पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय' में चारित्र का लक्षण दिया गया है-चूँकि चारित्र समस्त सावध योगों के परिहार से होता है, इसलिए समस्त कषायों से निवृत्ति और विशद उदासीन आत्म-रूप चारित्र है। १. (क) अभविंसु पुरा वि भिक्खुवो, आएसा वि भविंसु सुव्वता।
एताई गुणाई आहु ते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो ॥२०॥ तिविहेण वि पाणि मा हणे, आयहिते अणियाण संवुडे। एवं सिद्धा अणंतगा, संपति जे य अणागया अवरे ॥२१॥
-सूत्रकृतांग, श्रु. १. अ. २, उ. ३, गा. २०-२१ (ख) वही, अ. ११, मार्ग, गा. ३२-३८ २. (क) चरणं हिंसादिनिवृत्तिश्चारित्रम्।
-रत्नक. टीका ३/१ (ख) हिंसाऽनृत-चौर्यभ्यो मैथुन-सेवा-परिग्रहाभ्यां च। पाप-प्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम्॥
-वही ४९
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