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@ मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप 8 १७१ ॐ
कषाय-उपशान्ति का कोई भी विचार न रहा। आत्म-हितैषिता छोड़कर राग-द्वेष-कपायवर्द्धक एकान्त साम्प्रदायिक मान्यताओं से चिपके रहने में ही सम्यक्त्व समझा। फलतः अहंता-ममता के बन्धनों में जकड़कर सम्यग्दर्शन के बदले मिथ्यादर्शन का, आत्म-धर्म के बदले रूढ़िधर्म-साम्प्रदायिकधर्म का, मोक्षमार्ग के वदले संसारमार्ग का आश्रय लिया और अतत्त्व का श्रद्धान और तत्त्व का अश्रद्धान, इन दोनों प्रकार के मिथ्यात्व का प्रायः पोषण = सेवन किया। ऐसा तथाकथित वाह्य दर्शनादि त्रय कर्मबन्धकारक होने से मोक्षमार्ग कैसे बन सकते हैं ?
सम्यग्दर्शन क्या है, क्या नहीं ? सम्यग्दर्शन आत्मा की सत्य प्रतीति से, आत्म-धर्म से तथा पर-धर्म एवं जड़-तत्त्वों की पृथक्ता के बोध से सम्बन्धित है। परन्तु जव इसे भुलाकर या इसकी उपेक्षा करके साम्प्रदायिकतारूपी धर्म पर विश्वास किया जाता है, तब गृहीत मिथ्यात्व से ग्रस्त कट्टर सम्प्रदायवादी व्यक्ति अपने सम्प्रदाय एवं पंथ के अतिरिक्त जो कुछ भी सत्य या उदात्त भाव है, उसे स्वीकार नहीं करता। ___ वस्तुतः सम्यग्दर्शन का दुनियादारी के ज्ञान से कोई वास्ता नहीं होता। परन्तु सम्प्रदायवादी व्यक्ति का सम्यग्दर्शन के नाम पर कथन होता है-मेरुपर्वत, स्वर्णमय सुमेरुगिरि, उसकी ऊँचाई-लम्बाई-चौड़ाई तथा नन्दनवन आदि जड़-वस्तुओं पर विश्वास करना सम्यग्दर्शन है। क्या किसी पर्वत, नदी आदि का ज्ञान न हो तो सम्यग्दर्शन नहीं रह सकता है ? परन्तु पंथवादी व्यक्ति भगवान की नाम की मुहर-छाप तथा कथित बाह्य जड़-वस्तुओं पर लगाकर उन पर विश्वास करने में सम्यग्दर्शन की सुरक्षा मानता है। पन्द्रह प्रकार से मुक्ति मानने वाला जैनदर्शन रत्नत्रयरूप धर्म या मोक्षमार्ग अथवा सम्यग्दर्शन किसी सम्प्रदाय-पंथ-विशेष, किसी वेश-विशेष, अमुक चिह्न-विशेष अथवा अमुक क्रियाकाण्ड-विशेष में ही सीमित नहीं करता। इस पर किसी सम्प्रदाय-विशेष की ठेकेदारी नहीं है।।
सम्यग्दृष्टि की दृष्टि में धर्म आत्म-दृष्टिपरक धर्म है - सम्यग्दृष्टि आत्मा धर्म उसे मानता है, जिससे आत्म-शुद्धि हो, आत्म-ज्ञान हो, आत्मा पर या आत्म-विकास पर निष्ठा हो। वह रूढ़ियों और अन्ध-परम्पराओं में धर्म नहीं मानता, प्रत्युत आत्मा के निजी गुणों के रूप में सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय को धर्म मानता है, जिससे संवर-निर्जरा और अन्त में सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष हो सके। वह इस धर्म की पहचान वेश, क्रिया या भाषण से नहीं, अपितु प्रज्ञा से, आत्म-हितैषिता से, वीतरागता से, राग-द्वेष-कपाय आदि विभावों की मंदता या उपशान्ति अथवा इनसे मुक्ति से करता है। सम्यग्दृष्टि के भावों में सरलता, गुणग्राहकता, आत्माभिमुखता, आत्म-हितैषिता, नम्रता, मृदुता या आत्म-धर्म पर
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