________________
४ १२६ कर्मविज्ञान : भाग ८ ४
दी ? ऐसा तो वह नहीं कर सकता। फिर वह संसार - परित्याग करके कहाँ चला गया? वही शरीर, वही वस्त्र रहा, भले ही वस्त्र की बनावट और वेशभूषा में कुछ परिवर्तन आ गया हो। परन्तु शरीर-पोषण के लिए जल, वायु तथा भोजन भी वही रहा, फिर उसके संसार छोड़ने का क्या अर्थ हुआ ? स्पष्ट है कि आध्यात्मिक भाषा में ये सब अपने आप में संसार नहीं हैं। आध्यात्मिक भाषा में कहा जाता है"कामानां हृदये वासः संसारः परिकीर्तितः । " अर्थात् (शरीर, अशन, वसन आदि के प्रति ) कामनाओं, वासनाओं, इच्छाओं, आसक्तियों और वैषयिक आकांक्षाओं का अन्तःकरण में निवास करना (अनन्त काल तक ), मँडराते रहना ही संसार है। वस्तुतः ऐसा भावसंसार ही बन्धन है, काम और कामनाओं की दासतारूप संसारबन्धन से मुक्त होना ही मोक्ष है।
आत्मा की अशुद्ध स्थिति संसार है, विशुद्ध स्थिति मोक्ष है
मोक्ष क्या है? इस सम्बन्ध में आत्मवादी दर्शनों के समक्ष दो वस्तुएँ केन्द्र में रहीं - आत्मा और उसका मोक्ष । जो आत्मा अभी संसारावस्था में बन्धनयुक्त है, उसी आत्मा का उस संसारबन्धन से मुक्त होकर अपनी विशुद्ध स्थिति में पहुँच जाना मोक्ष है। अर्थात् मोक्ष आत्मा की उस विशुद्ध स्थिति का नाम है, जहाँ आत्मा (समस्त विभावों, विकारों या कर्ममलों से रहित होकर) सर्वथा अमल एवं धवल हो जाता है। मोक्ष को जब आत्मा की विशुद्ध स्थिति का स्वीकार कर लिया जाता है, तब मोक्ष के विपरीत आत्मा की अशुद्ध स्थिति को ही संसार कहा जाता है । इससे स्पष्ट है कि मोक्ष में आत्मा (जीवन) का विसर्जन न होकर उसके प्रति मानव-बुद्धि में जो एक प्रकार का मिथ्या दृष्टिकोण है, मिथ्याज्ञान है एवं मिथ्याचारित्र (आचरण) है, उनका विसर्जन होकर उनके स्थान पर क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र का पूर्णतया सर्वतोभावेन विकास हो जाना ही मोक्ष है। पूर्वोक्त संसारबन्धन से मुक्त होने पर मुक्तात्मा के जीवन में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आत्मिक शक्ति और अनन्त निराकुलतापूर्ण निराबाध आनन्दयुक्त स्थायी शान्ति प्राप्त हो जाती है।
भावसंसार के विनाश से इस संसार में रहते हुए भी मोक्ष हो सकता है
इसीलिए 'तत्त्वानुशासन' में मोक्ष का स्वरूप बताया गया है - " इष्ट और अनिष्ट पदार्थों के प्रति मोह आदि के उच्छेद (विनाश) से चित्त के स्थिर हो जाने से रत्नत्रय का आत्मा में ध्यान करने से मोक्ष होता है, फिर वहाँ एकान्त अव्याबाध सुखानुभव होता है।
‘आचारांग निर्युक्ति' में कहा गया है - " संसार का मूल कर्म और कर्म का मूल कषाय (या राग-द्वेष) है।” अतः मूल में तो कषाय या राग-द्वेष ही संसार है, वही
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org