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ॐ मोक्ष : क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ ? * १२५ ॐ
अन्दर द्वेष, मोह और कषायों के कारण कर्मों की गाठे हैं, वे ही बन्धन हैं। ये आन्तरिक बन्धन चर्मचक्षुओं से नहीं दिखाई देते, परन्तु प्रत्येक सर्वकर्मबद्ध प्राणी में ये भाववन्धन निहित हैं। पूर्वोक्त वैकारिक कल्पनाप्रसूत बंधन ही वास्तविक कर्मबन्ध हैं, जो प्राणी को अनन्त-अनन्त जन्मों तक जन्म-मरणादि को चक्र में भटकाते हैं। अतः इन वैकारिक एवं कल्पनाओं से प्रसूत कर्मबन्धनों से सर्वथा छूटने का नाम ही मोक्ष है। दूसरे शब्दों में-अन्तरतम में पुष्ट वे कर्मसंस्कार, जिनसे प्रेरित होकर ये वैभाविक राग-द्वेष-कषायादि विकारयुक्त विकल्प कर रहा हूँ, जिससे विविध कर्मबन्ध होते हैं। उसके विनष्ट होने का नाम ही मोक्ष या मुक्ति ये विविध कर्मबन्धन हैं, इसलिए इनसे छूटने-मुक्त होने (मोक्ष) का उपाय सोचना आवश्यक है। संक्षेप में कहें तो कर्मसंस्कारों से रहित अपनी (आत्मा की) स्वाभाविक स्वरूप में अवस्थिति, पूर्ण स्वतंत्रता और शान्त (निवृत) दशा का नाम मोक्ष या मुक्ति है।' पूर्वोक्त भावबन्धन से मुक्ति पाने के लिए प्रयत्न करना अत्यावश्यक है।
संसार भी एक प्रकार का बन्धन : उससे छूटना मोक्ष है 'तत्त्वार्थवार्तिक' में कहा गया है-“जिस प्रकार बन्धन में पड़ा हुआ प्राणी जंजीर आदि से छूटकर, स्वतंत्र होकर इच्छानुसार गमन करता हुआ सुखी होता है, इसी प्रकार संसार के मूल रूप समस्त कर्मों के बन्धन से मुक्त हुआ आत्मा स्वाधीन होकर पूर्ण ज्ञान-दर्शनरूप अनुपम सुख का अनुभव करता है। इस दृष्टि से सोचें तो संसार भी एक प्रकार का बंधन है और उससे छूटना मोक्ष है।
संसार क्या है? स्थूलदृष्टि वाले लोग संसार का अर्थ करते हैं-आकाश, पाताल, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, मध्यलोक, सूर्य, चन्द्र, भूमि, वायु, जल, अग्नि, अमुक क्षेत्र आदि। क्या आध्यात्मिक दृष्टि से संसार का यही अर्थ है? क्या अध्यात्मशास्त्र इन सबसे छोड़ने की बात कहता है ? भौतिक जीवन में रहते हुए तो इंन भौतिक तत्त्वों को छोड़ना अशक्य है। किन्तु पूर्ण आध्यात्मिक जीवन में भी, मोक्ष में भी आत्मा रहेगा तो लोक में ही, अमुक क्षेत्र, भूमि आदि में ही, लोकाकाश में ही। लोकाकाश के बाहर वह कहाँ जाएगा? जब कोई संसार से विरक्त या मुमुक्षु व्यक्ति, वैराग्य की भाषा में संसार छोड़ने की बात कहता है, तब वह क्या छोड़ता है ? कदाचित् अशन, वसन, भोजन आदि में से कोई वस्तु छोड़ दे, किन्तु भूमि, आकाश, जल, वायु तथा अपने तन-मन-वाणी, इन्द्रियों आदि को वह कैसे छोड सकेगा? फिर संसार-विरक्त, मुमुक्षु व्यक्ति ने क्या एकदम मोक्ष में छलांग लगा
१. 'शान्ति-पथ-दर्शन' (श्री जिनेन्द्रवर्णी) से भावांश ग्रहण २. (क) 'तत्त्वार्थवार्तिक' (अकलंक भट्ट) १/४/२७
- (ख) 'अध्यात्म प्रवचन' (उपाध्याय अमर मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. २८-२९ Jain Education International
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