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* मोक्ष : क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ ? * १४५ *
सुखरूप है और अपने स्वरूप में स्थित हो जाना ही तो मोक्ष है। इसीलिए 'वसनन्दी श्रावकाचार' में कहा है-“जिनशासन में समस्त कर्मों से विमुक्त होने को मोक्ष कहा गया है और समस्त कर्मों से मुक्ति प्राप्त करने पर जीव अनन्त सुख का अनुभव करता है।" 'उत्तराध्ययनसूत्र' में भी स्पष्ट कहा है-“सर्वज्ञान के प्रकाशित होने से, अज्ञान और मोह से सर्वथा रहित होने से और राग-द्वेष के सर्वथा क्षय होने से वह जीव एकान्त सुखरूप. मोक्ष प्राप्त करता है।" यदि मोक्ष में आत्मा का सुखरूप स्वभाव ही नष्ट हो जायेगा तो बचेगा क्या? यही कारण है कि 'तत्त्वार्थसूत्र की श्रुतसागरीय टीका' में कहा गया है-जीव का समस्त कर्ममल कलंक से रहित होना, अशरीरत्व, अचिन्त्य नैसर्गिक ज्ञानादि-गुणसहित अव्याबाध सुख प्राप्त होना, इस प्रकार का आत्यन्तिक अवस्थान्तर मोक्ष कहलाता है। अतएव ‘षड्दर्शन समुच्चय की टीका' में कहा गया है-"जिस अवस्था में अतीन्द्रिय और बुद्धिग्राह्य आत्यन्तिक सुख की प्राप्ति होती है, वही मोक्ष है।" इन सब प्रमाणों से सिद्ध है कि मोक्ष में आत्मा के स्वाभाविक सुख का उच्छेद नहीं होता। अतः मोक्ष में बौद्धों की भाँति आत्मा का अभाव नहीं होता, न ही वैशेषिक की भाँति आत्मा ज्ञान तथा आत्मिक-सुख से शून्य होता है न ही अचेतन होता है; क्योंकि ज्ञान, सुख और चेतनत्व आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं तथा मोक्ष में सांख्यदर्शनवत ज्ञान और दर्शन निरर्थक भी नहीं होते, क्योंकि वहाँ भी मुक्तात्मा त्रिजगत् को साक्षी भाव से जानता
और देखता है तथा सूर्य की तरह स्व-पर-प्रकाशत्वरूप को नहीं छोड़ता। 'सिद्धिविनिश्चय' में मोक्ष की विभिन्न रूपता की झाँकी दी गई है।
___ नैयायिक-वैशेषिकों की मोक्ष की कल्पना - जैनदर्शन का यह मानना है कि मोक्ष में आत्मा के सभी निज गुण शुद्ध एवं पूर्ण विकसित रूप में विद्यमान रहते हैं, किन्तु नैयायिक वैशेषक आदि कतिपय दर्शन सभी आत्म-गुणों का सर्वथा उच्छेद मानते हैं। जैसे कि वैशेषिक दर्शन में मोक्ष का लक्षण है"बुद्धि-सुख-दुःख-इच्छा-द्वेष-प्रयत्न-धर्माधर्म-संस्काराणां नवानामात्मगुणानां उच्छेदः
मोक्षः।"
' अर्थात् बुद्धि (ज्ञान), सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, इन नौ आत्म-गुणों का उच्छेद (विनाश) हो जाना ही मोक्ष है। १. (क) णिस्सेसकम्ममोक्खो मोक्खो, जिणसासणे समृद्दिवो।
तम्हि कए जीवोऽयं अणुहवइ अणंतयं सोक्खं॥ -वसुनन्दी श्रावकाचार (ख) नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नाण-मोहस्स विवज्जणाए।
रागस्स दोसस्स उ संखएण, एगंतसोक्खं समुवेई मोखं॥ -उत्तरा., अ. ३२/२ (ग) षड्दर्शन समुच्चय गुणरत्न टीका, पृ. २८८ । (घ) “जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त : एक अध्ययन' (डॉ. कु. मनोरमा जैन) से भाव ग्रहण, पृ. २२३ (ङ) आत्मलाभं विदुर्मोक्षं, जीवस्यान्तर्मलक्षयात्।
नाऽभावं नाप्यचैतन्यं, न चैतन्यमनर्थकम्॥ -सिद्धिविनिश्चय; उ. ७, श्लो. १९
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