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ॐ १५६ ७ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
मोक्षमार्ग की विशेषता एवं सर्वकर्मक्षय कराने में सफलता
श्रमणसूत्रगत पाठों में निर्ग्रन्थ-प्रवचनरूप धर्म के सन्दर्भ में मोक्षमार्ग की विशेषता और मोक्ष-प्राप्ति कराने में उसकी निश्चितता तथा सर्वकर्मक्षय कराने में उक्त मार्ग की विधिपूर्वक की गई साधना में सफलता एवं गारंटी देने वाले पर्यायवाची शब्दों का निरूपण किया गया है। उन विशेषता-प्रतिपादक शब्दों का क्रमशः प्रयोग इस प्रकार है-“सच्चं अणुत्तरं केवलियं पडिपुण्णं नेयाउयं संसुद्ध, सल्लगत्तणं सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं, निव्वाणमग्गं अवितहमसंदिद्धं सव्वदुक्खपहीणमग्गं।' यद्यपि ये विशेषणवाचक शब्द निर्ग्रन्थ प्रवचन के हैं, तथापि 'मूलाराधना की विजयोदया टीका' में निर्ग्रन्थ प्रवचन का फलितार्थ रत्नत्रय धर्मरूप मोक्षमार्ग होता है।'
हाँ, तो वह मोक्षमार्ग सत्य है, अर्थात् 'सभ्यो हितं सत्यम्' इस निर्वचन के अनुसार भव्यात्माओं के लिए हितकर तथा सद्भुत है। वह अनुत्तर अर्थात् सर्वोत्तम है। कैवलिक है, यानी केवलि-सर्वज्ञ-प्ररूपित है अथवा अद्वितीय है। वह मोक्षमार्ग (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप) धर्म से प्रतिपूर्ण है अथवा मोक्ष को प्राप्त कराने वाले सद्गुणों से पूर्ण (भरा हुआ) है। वह नैयायिक है-नयनशील है, (मोक्ष में) ले जाने वाला है अथवा निश्चित आय = लाभ ही न्याय है, दूसरे शब्दों में-साधक के लिए मोक्ष ही सबसे बढ़कर निश्चित आय (न्याय = मोक्ष) ही जिसका प्रयोजन है, वह न्यायिक भी है तथा वह मोक्षमार्ग पूर्ण शुद्ध = संशुद्ध है। आंशिक रूप से शुद्ध होने पर वह जैनमान्य मोक्षमार्ग नहीं हो सकता। वह मोक्षमार्ग' शल्यकर्तन है, अर्थात् माया, निदान और मिथ्यादर्शनरूप शल्यत्रय को काटने वाला है। त्रिविध शल्यों के द्वारा पीड़ितों के शब्दों को काटने की शक्ति एकमात्र सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रययुक्त मोक्षमार्ग में ही है। फिर यह मोक्षमार्ग सिद्धिमार्ग है आत्म-स्वरूप की प्राप्ति या हितार्थ-प्राप्ति का नाम सिद्धि है, उसका मार्ग यानी उपाय, सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग है। यह सिद्धिमार्ग इसलिए भी है कि कर्मों का आवरण हटाकर शुद्ध आत्म-ज्योति का प्रकाश इसी रत्नत्रयादि धर्म की साधना द्वारा सिद्धि दिलाने वाला है। यह मुक्तिमार्ग है, अर्थात् निःसंगता-निर्मुक्तता का मार्ग = उपाय है। मुक्तिमार्ग का एक अर्थ अहितार्थक कर्मों से मुक्ति (छुटकारा) दिलाने वाला मार्ग भी है। वह निर्याणमार्ग भी है, अर्थात् अनन्तकाल से संसार-चक्र में भटकते हुए १. देखें-मूलाराधना विजयोदया टीका १-४३ में निर्ग्रन्थ प्रवचन का मोक्षमार्गरूप प्रवचन के रूप
में फलितार्थग्रन्थन्ति रचयन्ति दीर्धी कुर्वन्ति संसारमिति ग्रन्थाः-मिथ्यादर्शनं, मिथ्याज्ञानं असंयमः, कषायाः, अशुभयोगत्रयं चेत्यमीपरिणामाः। मिथ्यादर्शनानिष्क्रान्तं किम् ? सम्यग्दर्शनं, मिथ्याज्ञानानिष्कान्तं सम्यग्ज्ञानम्, असंयमात् कषायेभ्योऽशुभयोगत्रयाच्च निष्कांन्तं सुचारित्रं। तेन तत्त्रयमिह निर्ग्रन्थ शब्देन भण्यते।
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