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ॐ १६२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
दर्शन, ज्ञान और चारित्र से पूर्व सम्यक् शब्द क्यों ?
प्रश्न होता है-दर्शन, ज्ञान और चारित्र के पूर्व 'सम्यक' शब्द क्यों जोड़ा जाता है ? इसकी क्या आवश्यकता है? इन तीनों के पूर्व सम्यक शब्द लगाने का क्या महत्त्व है ? सम्यक् शब्द लगाने से क्या विशेषता आ जाती है इनमें? इसका समाधान यह है कि केवल दर्शन, ज्ञान और चारित्र को ही मोक्ष का अंग मान लिया जाए, उनसे पूर्व सम्यक् शब्द न जोड़ा जाए तो मिथ्यादर्शन (मिथ्यात्व), मिथ्याज्ञान (कुज्ञान-अज्ञान) एवं मिथ्याचारित्र (कुचारित्र या अविरति) को भी मोक्ष का मार्ग या अंग मान लिया जाएगा, क्योंकि दर्शन का दर्शनत्व, ज्ञान का ज्ञानत्व और चारित्र का चारित्रत्व वहाँ पर भी रहता ही है। परन्तु आत्म-स्वरूप की पूर्ण उपलब्धिरूप या स्व-स्वरूप में सर्वथा सर्वदा अवस्थानरूप अथवा सर्वकर्मक्षयरूप. मोक्ष के अंग मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र नहीं बन सकते। मिथ्यादर्शन (मिथ्यात्व) आदि को मोक्ष का अंग न मानकर संसार का ही अंग माना : गया है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र तीनों के समन्वय को ही मोक्षमार्ग (मोक्ष के साधन या उपाय) के रूप में माना गया है।'. प्रत्येक आत्मा में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की त्रैकालिक सत्ता है
यद्यपि दर्शन, ज्ञान और चारित्र आत्मा के निज गुण हैं, संसारी जीव हो या सिद्ध-परमात्मा हो, प्रत्येक जीव (आत्मा) में ये तीनों गुण रहते ही हैं। वे कभी
आत्मा को छोड़कर रह ही नहीं सकते। जैसे-ज्ञान आत्मा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण निज गुण है। जो निज गुण होता है, वह अपने गुणी से कभी अलग नहीं हो सकता। अनन्त भूतकाल में एक भी समय ऐसा नहीं रहा, जब ज्ञान आत्मा को छोड़कर अलग रहा हो और अनन्त भविष्य में एक क्षण भी ऐसा नहीं आएगा, जब ज्ञान आत्मा को छोड़कर अलग हो जाएगा। ___ वर्तमान क्षण में भी आत्मा में ज्ञान है ही। इस दृष्टि से ज्ञान तीनों काल में आत्मा में रहता है। इसी प्रकार दर्शन भी आत्मा का निज गुण है। वह भी आत्मा में सदैव रहा है, रहता है और रहेगा। ज्ञान के समान दर्शन की भी आत्मा में
कालिक सत्ता है। अब रहा चारित्र। वह भी आत्मा का निज गुण है। चारित्र भी आत्मा में अनन्त काल तक रहता है और रहेगा। आत्मा की सत्ता अनन्त काल से है, और अनन्त काल तक रहेगी। इस दृष्टि से ज्ञान, दर्शन और चारित्र भी आत्मा के निजी विशिष्ट गुण होने के नाते गुणी आत्मा से कभी पृथक् नहीं हो सकते। अतः जब आत्मा की त्रैकालिक सत्ता है, तो इन तीनों की भी त्रैकालिक सत्ता है।
१. (क) 'अध्यात्म प्रवचन' से भाव ग्रहण, पृ. ७७-७०
(ख) सर्वार्थसिद्धि १/१/५/३६
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