________________
* १६० कर्मविज्ञान : भाग ८
साधन भी उतना ही उच्च और गहन होना आवश्यक है। प्रारम्भिक स्थिति में जब तक साधक की साधना सिद्धत्व के रूप में परिपक्व नहीं हो जाती, तब तक उसे अवलम्बन एवं साधन की आवश्यकता होती है । साध्य के विषय में हमने मोक्ष-विषयक निबन्धों में काफी प्रकाश डाला है। फिर भी कुछ साधक ऐसे होते हैं, जो साधन के नाम पर अपने मनमाने गलत सुविधाजनक साधनों को पकड़ लेते हैं, • ऐसे लोग साध्य को भी सौदा मान लेते हैं, वे साध्य को भी ठीक ढंग से नहीं पकड़ पाते हैं। दूसरे प्रकार के साधक साध्य को तो ठीक ढंग से पकड़ लेते हैं, परन्तु साधन के सम्बन्ध में, साधन-शुद्धि के विषय में कुछ भी ध्यान नहीं देते। ये दोनों. प्रकार के साधक अन्ततोगत्वा भटक जाते हैं, भ्रष्ट हो जाते हैं और साध्य को नहीं प्राप्त कर पाते।
'सूत्रकृतांगसूत्र' में ऐसे साधकों के विषय में कहा गया है - जो साध्य के विषय में भी सभी पहलुओं से अज्ञ हैं, साधनों के विषय में भी वे लोगों के समक्ष बड़ी-बड़ी बातें बघारते हैं, स्वयं को प्रबुद्ध और प्राज्ञ मानते हैं, किन्तु · अहंकार, क्रोध, ईर्ष्या, लोभ, प्रतिष्ठा, लोलुपता आदि दोषों से घिरे होने से वे साध्य से भी दूर हो जाते हैं, साधनों (सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र - तप) से भी भ्रष्ट और पतित हो जाते हैं। संक्षेप में, उन तथाकथित साध्य - साधन - भ्रष्ट्र सम्यग्दर्शनादिरूप भाव-समाधि से दूर साधकों की मनोदशा इस प्रकार है - " वे भावनिर्वाणरूप समाधि ( साध्य ) से दूर हैं। क्योंकि निर्वाण ( साध्य) मार्ग के कारण (साधन) हैंसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र। परन्तु वे इस धर्म और मोक्ष के वास्तविक बोध अनभिज्ञ हैं, फिर भी स्वयं तत्त्वज्ञ होने का दम भरते हैं। अगर उन्हें जीव-अजीव तत्त्व का सम्यक्बोध होता तो वे सचित्त बीज, कच्चे पानी या औद्देशिक दोषयुक्त आहार का सेवन कर हिंसादि आम्रव और कर्मबन्ध न करते । इसलिए वे जीवों की पीड़ा से अनभिज्ञ अथवा धर्म और कर्म के ज्ञान में अनिपुण और असमाधियुक्त हैं। वे दुर्बुद्धि अपने लिए अष्टविध कर्मरूप या असातावेदनीय रूप दुःख पैदा करके अनेक बार घात (जन्म-मरणादि) चाहते / ढूँढ़ते हैं। वे अपने संघ लिए आहार बनवाने तथा उसे प्राप्त करने के लिए अहर्निश लालायित रहते हैं । वे दूसरे धर्म-संघों से ईर्ष्या-द्वेष, पर- निन्दा, क्लेश आदि करने में तत्पर रहकर आर्त्त-रौद्रध्यान में रत रहते हैं। वे ऐहिक सुख की कामना करते रहते हैं । धनधान्य आदि परिग्रह रखते हैं। मनोज्ञ आहार, शय्या - आसन आदि रागवर्द्धक वस्तुओं का उपभोग करते हैं, फिर उनके द्वारा तप त्यागवर्द्धक संयमयुक्त शुभ ध्यान कैसे हो सकता है? अतएव ऐसे साधक धर्मध्यानयुक्त समाधिमार्ग से काफी दूर हैं। जलचर व माँसाहारी पक्षियों के दुर्ध्यान की तरह वे हिंसादि हेय बातों से दूर न होने से अनार्य हैं। वे सम्यग्दर्शनरहित होने से विषय प्राप्ति का दुर्ध्यान करते हैं। सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म (मोक्ष) के निर्दोष मार्ग से भिन्न कुमार्ग की प्ररूपणा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org