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o मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप @ १६७ ॐ
है। उस सम्यग्दृष्टि आत्मा द्वारा सम्यक् रूप से किये गए अल्प तप-जप भी महान् फलदायक होते हैं।
मोक्ष के तीनों साधनों की परिपूर्णता कब और कैसे ? आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों का अपने-अपने ग्थान पर मूल्य, महत्त्व एवं उपयोग है। तीनों ही मक्ति के उपाय हैं किन्तु पृथक रूप से नहीं, समन्वित रूप से ही। जैन-सिद्धान्त की दृष्टि से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान चतुर्थ गुणस्थान में प्रकट हो जाते हैं। किन्तु सम्यक्चारित्र की उपलब्धि पंचम गुणस्थान से प्रारम्भ होती है। वैसे तो अनन्तानुबन्धी कपाय के क्षयोपशम आदि की दृष्टि से मोह-क्षोभहीनता एवं म्वरूप-रमणतारूप चारित्र अंशतः तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के साथ ही प्रारम्भ हो जाता है। दर्शन की परिपूर्णता अधिकतम सप्तम गुणस्थान तक हो जाती है, ज्ञान की परिपूर्णता तेरहवें गुणस्थान में होती है और चारित्र की परिपूर्णता तेरहवें गुणस्थान के अन्त में एवं सैलेशी अवस्थारूप चौदहवें गुणस्थान में होती है। जैन-सिद्धान्तानुसार इन तीनों साधनों की परिपूर्णता का नाम ही मोक्ष या मुक्ति है। मुमुक्षु आत्मा की अध्यात्मयात्रा की यही अंतिम मंजिल है।
निष्कर्ष यह है कि केवल किसी भी प्रकार की क्रिया (चारित्र) या एकान्त अक्रिया भी मोक्ष का मार्ग (उपाय या साधन) नहीं हो सकते। गशुपत आदि कुछ दार्शनिक मात्र स्वशास्त्रकल्पित आचरण (कर्मकाण्ड) को मोक्ष का कारण मानते हैं, इसी प्रकार कुछ दार्शनिक आचार, चारित्र या अमुक क्रिया को ही मोक्ष का कारण मानते हैं, यह सिद्धान्त भी ठीक नहीं है। "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः।" इसके प्रतिपादनपूर्वक हम आगे सिद्ध करेंगे कि क्रियारहित ज्ञान की तरह, अज्ञानी की क्रियाएँ भी व्यर्थ हैं। 'तत्त्वार्थ वार्तिक' में कहा है--ज्ञानरहित क्रिया निरर्थक होती है, उसी प्रकार श्रद्धारहित ज्ञान एवं क्रियाएँ भी निरर्थक होती हैं। ‘सर्वार्थसिद्धि की उत्थानिका' में एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है कि किसी रोगी का रोग • केवल दवा में विश्वास करने मात्र से दूर नहीं होता, जब तक उसे दवा का ज्ञान न हो और चिकित्सक के निर्देशानुसार आचरण न करे। इसी प्रकार दवा की जानकारी मात्र से तब तक रोग दूर नहीं हो सकता, जब तक रोगी दवा के प्रति रुचि न रखे और विधिवत् उसका सेवन न करे। इसी प्रकार दवा में रुचि और ज्ञान के बिना मात्र उसके सेवन से भी रोग नहीं मिट सकता। रोग तभी दूर हो सकता है, जब दवा पर श्रद्धा और रुचि हो, उसकी जानकारी और प्रतीति हो १. (क) अध्यात्म प्रवचन' से भाव ग्रहण. पृ. ८२ (ख) एयाइं चेव मिच्छादिद्विम्स मिच्छत्तपरिग्गहत्तेण मिच्छासुयं। एयाई चेव सम्मदिट्टिस्स सम्मत्त परिग्महत्तेण सम्मसुयं ॥
-नंदीसूत्र
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