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ॐ १४८ * कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ .
वल्लभवेदान्त मत में भी मोक्ष प्राप्ति के लिए ईश्वर-कृपा अनिवार्य ___ वल्लभवेदान्त पष्टिमार्गीय कहलाता है। पुष्टि का अर्थ है-ईश्वर-कपा या दिव्य-कपा। पुष्टिमार्ग की दृष्टि में जीव के प्रयत्नों द्वारा प्राप्त मोक्ष को निम्न कोटि का समझा जाता है। उसका विश्वास है कि सर्वश्रेष्ठ मोक्ष केवल ईश्वरीय-कृपा से ही प्राप्त हो सकता है। उसका कहना है-मोक्ष प्राप्त करने के लिए दिव्य-कृपा का मार्ग ही सर्वाधिक सुरक्षित है। वल्लभ मोक्ष-प्राप्ति के लिए साधनों के रूप में निष्काम कर्म, ज्ञान और योग (चित्तवृत्ति-निरोध) आवश्यक है। परन्तु ईश्वर की भक्ति (प्रेम और सेवा) और उसके प्रति प्रपत्ति (आत्म-समर्पण) ही सर्वोत्कृष्ट साधन हैं। अकेले कर्मयोग से मोक्ष प्राप्त नहीं होता, उसके साथ ज्ञानयोग और भक्तियोग भी अनिवार्य है। इस दर्शन में मोक्ष के लिये शरण और आत्म-समर्पण मुख्य हैं। रामानुज आदि भक्तिमार्गीय आचार्यों की दृष्टि में मोक्ष
वल्लभ के पुष्टिमार्गीय, रामानुज के विशिष्टाद्वैतरूप, निम्बार्क के भेदाभेदरूप तथा मध्व के शुद्धाद्वैतरूप वेदान्त के मत में मोक्ष के स्वरूप में थोड़ा-थोड़ा अन्तर है। परन्तु इन सब भक्तिमार्गीय आचार्यों का बन्ध और मोक्ष के सम्बन्ध में आग्रहपूर्ण मत है कि अविद्या, काम, प्रकृति, कर्म इत्यादि जो बन्ध के कारण हैं, वे तो गौण रूप से हैं, मुख्य रूप से तो ईश्वर की इच्छा ही मानव-बन्ध का एकमात्र कारण है तथा मोक्ष केवल तभी प्राप्त हो सकता है, जब अपरोक्ष ज्ञान के साथ ईश्वरीय-कृपा भी प्राप्त हो और अपरोक्ष ज्ञान का मतलब है-ब्रह्म की अनन्तता एवं उसकी तुलना में स्वयं की लघुता और ब्रह्म पर निर्भरता का ज्ञान। परन्तु मोक्ष के लिये केवल अपरोक्ष ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। इनके मतानुसार मोक्ष केवल आत्मा और ब्रह्म के वास्तविक सम्बन्ध को जानना है। मोक्ष ब्रह्म का ज्ञान और ईश्वरीय-कृपा, इन दोनों का सामूहिक फल है। जीव केवल अपने ही पुरुषार्थ से, अर्थात् सिर्फ ज्ञान से मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता।'
रामानुज आदि के मतानुसार-जीव तीन भागों में विभक्त किया गया है(१) नित्य, (२) मुक्त, और (३) बद्ध । बद्ध जीव वे हैं, जो बन्धन में हैं, बन्धन में ही रहते हैं। मक्त जीव पहले बन्धन में थे, अब ईश्वर-कपा से मुक्त हो गए हैं। और नित्य वे आत्माएँ हैं, जो सदैव बैकुण्ठ में रहती हैं। बैकुण्ठ के विभिन्न (गोलोक, ब्रह्मलोक आदि) नाम वैष्णवों में प्रसिद्ध हैं। वे इस पृथ्वी पर जन्म नहीं लेतीं। वे हमेशा ब्रह्मानन्द का उपभोग करती हैं। कर्म (प्रकृति) से वे मुक्त रहती हैं। जैनदर्शन का इसमें विश्वास नहीं है कि मोक्ष ईश्वर-कृपा से प्राप्त हो सकता है और न ही जैनदर्शन का दास्य-भक्ति और दासता में विश्वास है। जैनदर्शनानुसार-जीव स्वयं अपने पुरुषार्थ से मोक्ष प्राप्त करता है। उसकी आध्यात्मिक योग्यता ही उसे मोक्ष की ओर ले जाती है। यदि आध्यात्मिक गुरुओं (जिन-केवली या आचार्यादि) के अनुभवों, १. भक्त्या ज्ञानं ततो भक्तिस्ततो दृष्टिस्ततश्चसा। ततो मुक्तिस्ततो भक्तिः, सैव स्यात् सुखरूपिणी॥
-अणु-व्याख्या
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