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ॐ मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप ® १५३ ॐ
अध्यात्मयात्रा (संयमयात्रा) निराबाध है ? कितनी भव्य और सत्यं शिवं सुन्दरं यह अध्यात्मयात्रा है ! जैनधर्म की इस अध्यात्मयात्रा का पथ जीवन के अंदर से है, बाहर में नहीं। अनन्त-अनन्त साधक इसी यात्रा के द्वारा मोक्ष में पहुंचे हैं और पहुँचेंगे, किन्तु मोक्ष की मंजिल पहुँचने से पहले उन्होंने मोक्ष के मार्ग को जाना-पहचाना है, उस पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, स्पर्शना, पालना और अनुपालना भी की है, तभी उसकी यात्रा निराबाध हुई है।
अध्यात्मयात्री को मोक्ष का यथार्थ मार्ग पाना अत्यावश्यक है जब यह निश्चित हो जाता है कि यह अध्यात्मयात्रा मोक्ष की मंजिल तक पहुँचाने वाली है, समस्त कर्मक्षयरूप पूर्ण मोक्ष के शिखर को प्राप्त कराने वाली है, तब उसे मोक्ष का मार्ग जानना अत्यावश्यक है। केवल मोक्ष के शिखर को जानते-देखते रहने से काम नहीं बन पाता, उस शिखर तक पहुँचने के लिए जो भी वास्तविक मार्ग है, उसका जानना, पाना तथा उस पर चलना आवश्यक होता है। केवल मंजिल स्वप्नवत् होती है, छद्मस्थ साधक के लिए, जब तक उस मोक्ष शिखर तक पहुँचने का मार्ग न दिखाई दे, उपाय या साधन भी मालूम न हो। सही रास्ते के न पाने से मंजिल भी खो जाती है। मोक्षयात्री को सही मार्ग मिल जाने पर वह उस पर सरपट यात्रा कर सकता है, मार्ग में आने वाली विघ्न-बाधाओं से बच सकता है; मोक्ष के मार्ग में आने वाले साधक-बाधक तत्त्वों से वह अध्यात्मयात्री सजग रह सकता है।
- सूत्रकृतांग-प्रतिपादित प्रशस्तभाव (मोक्ष) मार्ग का विश्लेषण - मोक्षमार्ग का कितना महत्त्व है? और साधक-जीवन की प्रशस्त मोक्षयात्रा में यथार्थ मार्ग को जानने और उस पर चलने की कितनी उपयोगिता और अनिवार्यता है? इसे प्रतिपादित करने के लिए 'सूत्रकृतांगसूत्र' में 'मार्ग' नाम से ग्यारहवाँ अध्ययन स्वतंत्र रूप से निरूपित किया गया है। इस अध्ययन के प्रारम्भ में नियुक्तिकार ने मार्ग का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप से निक्षेप करके . भावमार्ग की ही प्रस्तुत अध्ययन में प्ररूपणा और विवक्षा की है। यथार्थ भावमार्ग वह है जिससे आत्मा को समाधि या शान्ति प्राप्त हो। परन्तु वह भावमार्ग भी दो प्रकार का है-प्रशस्त भावमार्ग और अप्रशस्त भावमार्ग। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप १. (क) सोमिला ! जं मे तव-नियम-संजम-सज्झाय-ज्झाणावग्गमादिसु जोएसु जयणा, से तं ___जत्ता।
-भगवतीसूत्र, श. १८, उ. १0 (ख) देखें-'श्रमणसूत्र' (उपाध्याय अमर मुनि) में 'जत्ता भे' पर विवेचन, पृ. ३६३ (ग) यात्रा तपोनियमादि-लक्षणा क्षायिक-मिश्रीपशमिकभाव-लक्षणा वा।
-आवश्यकवृत्ति (आचार्य हरिभद्र) २. 'अरिहन्त' (डॉ. साध्वी श्री दिव्यप्रभा जी) से भावांश ग्रहण, पृ. ५३ ।।
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