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मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप
मंजिल और मार्ग का निश्चय करना आवश्यक
समझदार यात्री यात्रा प्रारम्भ करने से पहले अपनी यात्रा की मंजिल और यात्रा- पथ निश्चित करता है। मान लो, किसी यात्री ने मंजिल (अंतिम गन्तव्य स्थान ) तो निश्चित कर ली, किन्तु उसे उस मंजिल तक पहुँचने के मार्ग का पता नहीं है। ऐसी स्थिति में वह यात्री ऊबड़-खाबड़ या उजड़ मार्ग पर चढ़कर भटक सकता है या वह विपरीत मार्ग पर चढ़कर अपनी परेशानी बढ़ा सकता है, लक्ष्य-भ्रष्ट एवं गुमराह होकर अपना अहित कर सकता है। इसी प्रकार आध्यात्मिक यात्री को अपनी साधना यात्रा करने से पूर्व अपने लक्ष्य, उद्देश्य,. मंजिल और मार्ग का सर्वप्रथम निश्चय करना आवश्यक है । लक्ष्य और मंजिल का निश्चय हो जाने पर भी यदि उस लक्ष्य या मंजिल तक पहुँचने का मार्ग निश्चित न हो तो वह आध्यात्मिक महायात्री भी भटक सकता है, उत्पथ पर चढ़ सकता है, लक्ष्य-भ्रष्ट एवं गुमराह हो सकता है।
यात्रा और भटकने में क्या अन्तर है ?
यात्रा और भटकने में बहुत बड़ा अन्तर है। यात्रा में एक लक्ष्य, एक मंजिल या एक उद्देश्य स्थिर और निर्धारित होता है, जबकि भटकने में न कोई लक्ष्य होता है. न ही गन्तव्य, मंजिल या उद्देश्य होता है। निरन्तर अपने लक्ष्य (मोक्ष) के पथ पर ही कदम बढ़ाते जाना यात्रा है - अध्यात्मयात्रा है। इसके विपरीत कभी इधर • चले गए, कभी उधर चले गए और फिर कभी पथ पर आ गए, फिर किसी के बहकाने, फुसलाने या भय अथवा प्रलोभन बताने से इधर-उधर चले गए, इसे यात्रा या विवक्षित अध्यात्मयात्रा नहीं कहकर भटकना ही कहा जा सकता है।
विवेक से रहित और सहित की यात्रा में बहुत अन्तर
एक व्यक्ति बहुत भोला है, उसकी विवेक-बुद्धि मन्द है, वह काश्मीर की यात्रा करने जा रहा है, किन्तु उसे न तो काश्मीर के स्वरूप का पता है, न उसे पता है कि काश्मीर किस दिशा में है, कहाँ है, किस मार्ग से वहाँ जाया जाता है ? ऐसी स्थिति में वह यदि घर से चल पड़ता है तो मार्गज्ञान और लक्ष्यस्वरूपज्ञान से रहित
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