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मोक्ष: क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ ? १४९
उनकी मोक्ष-विषयक विभिन्न प्रेरणाओं तथा धर्मशास्त्रों से मार्गदर्शन आदि को सदेह परमात्मा (अरिहंत, केवली आदि) की कृपा मानें तो कोई आपत्ति नहीं है। वैष्णव मतानुसार-मुक्त आत्मा केवल ब्रह्म के समान बन जाती है, उससे ऐक्य नहीं प्राप्त कर सकती। दूसरे शब्दों में, वह ईश्वर का सामीप्य प्राप्त कर सकती है, स्वयं ब्रह्म या ईश्वर नहीं बन सकती; क्योंकि ईश्वर ने जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करने और जीवों को कृपा प्रदान करने का अधिकार एकमात्र अपने लिए ही सुरक्षित रखा है। जैनदर्शन जगत् के कर्त्ता-धर्ता - संहर्त्ता के रूप में किसी ईश्वर को नहीं मानता, वह अपने पुरुषार्थ से अनन्त ज्ञानादि ऐश्वर्य से सम्पन्न ईश्वर को मानता है।
योगी अरविन्द - मान्य मोक्ष : स्वरूप और विश्लेषण
योगी अरविन्द की दृष्टि में मनुष्य का मोक्ष है - शरीर और मन (जड़, प्राण, चेतना और मनस्) को उसके वर्तमान दुःखों और बुराइयों से मुक्त करना । यह केवल तभी सम्भव है, जब मनस् का अतिमानस में रूपान्तरण हो जाय। मनस् को पूर्णतया शुद्ध करने पर ही दिव्य उस मनुष्य के मनस् में अवतरित हो सकता है। इस रूप में आधार तैयार करने पर दिव्य का अवरोहण होता है । फिर अतिमानस का किसी भी समय अवरोहण हो सकता है। मनस् को तैयार करने का उद्देश्य व्यक्तिगत मोक्ष ही नहीं, सम्पूर्ण सृष्टि का मोक्ष है। योगी अरविन्द के मत में व्यक्तिगत मोक्ष प्राप्त करना लक्ष्य नहीं, अपितु मानव का ही नहीं, समग्र सृष्टि का मोक्ष है।
अरविन्द मतानुसार - ( मोक्ष के लिए) आध्यात्मिक योग के तीन सोपान हैं(१) आत्म-समर्पण का संकल्प करना । अर्थात् अपने आप को ईश्वर के प्रति • पूर्णरूपेण समर्पित कर देना; न उससे कुछ माँगना और न ही किसी वस्तु की अपेक्षा रखना । (२) अपने समस्त कर्मों में ईश्वर के ही कर्तृत्व को देखना । मैं तो केवल निमित्तमात्र हूँ। मेरे माध्यम से ईश्वर ही कार्य कर रहा है। स्वयं के शरीर द्वारा किये गए कार्यों के प्रति भी स्वयं को आसक्त न करना, तटस्थ भाव से देखते रहना । (३) तीसरा अन्तिम सोपान है - संसार में सर्वत्र ईश्वर को ही देखना । विभिन्नताओं और विचित्रताओं से भरा यह जगत् ब्रह्म से भिन्न नहीं है । साररूप में एक ही है।
अरविन्द का कथन है- विश्व पूर्ण व्यष्टि है। जब व्यक्ति विश्व का अपने में समावेश कर लेगा और उससे ऊपर उठ जाएगा, तभी उसकी व्यष्टि पूर्ण कहलाएगी। फिर समस्त जीवधारी उसके लिए आत्मवत् हो जायेंगे। तब व्यक्तिगत स्वार्थ का स्थान विश्व का स्वार्थ ले लेगा। अपनी आत्मा का विश्वात्मा के साथ, अपनी इच्छा का विश्वेच्छा के साथ, अपने कार्यों का विश्व के कार्यों के साथ तथा अपने शुभ का विश्व के शुभ के साथ ऐक्य स्थापित कर लेगा । इस प्रकार मानव से अतिमानव बनना ही अरविन्द -मान्य मोक्ष है।
१. (क) 'भारतीय दर्शन में मोक्ष - चिन्तन' से भाव ग्रहण, पृ. २७६-२७९, २८३
(ख) Life Divine, p. 864
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