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१५२ कर्मविज्ञान : भाग ८
वह भोला यात्री या तो भटकेगा या फिर किसी के बहकावे में आकर विपरीत मार्ग पर चढ़ जाएगा अथवा उजड़ रास्ते से चलने पर कहीं चोर - लुटेरों के चक्कर में फँस जाएगा तथा वह मार्ग भ्रष्ट होकर हैरान भी हो सकता है। एक दूसरा व्यक्ति बाहोश है, विवेक-बुद्धियुक्त है, वह भी काश्मीर की यात्रा करने के लिये चल पड़ता है, काश्मीर के स्वरूप, मार्ग, साधन आदि सब की जानकारी करके काश्मीर की दिशा में ही चलता है, तो वह न तो इधर-उधर भटकता है और न ही बहकता है। वह ठीक लक्ष्य या मंजिल पर पहुँच जाता है। ये दोनों चित्र हमारे समक्ष हैं। इन दोनों में गमन और गति समान है । किन्तु एक के गमन और गति में न लक्ष्य का ठीक पता है, न ही उद्देश्य का और न ही मार्ग का ठीक ठिकाना है, जबकि दूसरे का गमन और उसकी गति लक्ष्य और उद्देश्य के ज्ञान के सहित है। उसे लक्ष्य और उसके स्वरूप का भी पता है और वहाँ पहुँचने के मार्ग का भी यथार्थ ज्ञान है । ऐसी स्थिति में पहले व्यक्ति की स्थिति सच्चे और बाहोश यात्री की नहीं है, जबकि : दूसरा व्यक्ति सच्चे माने में बाहोश और विवेकशील यात्री है। इसी प्रकार मोक्ष यात्री को भी सच्चे और बाहोश यात्री बनने के लिए अपनी यात्रा का उद्देश्य, लक्ष्य, मार्ग और मंजिल का यथार्थ ज्ञान होना अत्यावश्यक है।
कौन-सी और कैसी है यह यात्रा है ?
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कोई पूछ सकता है कि क्या गृहस्थवर्ग, क्या साधुवर्ग, जब भी किसी स्थान की यात्रा करना चाहता है तो मार्ग भी पूछता है और मंजिल भी तय करता है, तब फिर यहाँ फिर कौन-सी यात्रा है, जिसके लिए इतना विचार करना पड़े? जैन-संस्कृति में यह यात्रा भौतिक या बाह्य स्थूल कल्पना पर आधारित होकर आध्यात्मिक और अन्तरंग यात्रा से सम्बन्धित महायात्रा है । इसी प्रश्न के सम्बन्ध में 'भगवतीसूत्र' में श्रमण भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित यात्रा विषयक समाधान प्रस्तुत है-सोमिल ब्राह्मण भगवान महावीर से पूछता है - "भगवन् ! क्या आप यात्रा भी करते हैं ?" भगवान ने उत्तर दिया- “हाँ, सोमिल ! मैं यात्रा भी करता हूँ।” सोमिल ने तुरंत पूछा - " आपकी कौन-सी या कैसी यात्रा है ?” सोमिल बाह्य जगत् की स्थूल यात्रा में विचरण कर रहा था, जबकि भगवान अन्तर्जगत् की सूक्ष्म आत्म- यात्रा में विचरण कर रहे थे। अतः भगवान ने उत्तर दिया- “सोमिल ! मेरी अपने तपश्चरण, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान, सामायिक आदि षड् आवश्यक आदि योगों की साधना में जो यतना है (सम्यक्समिति - गुप्तियुक्त प्रवृत्ति - निवृत्ति है ), वही मेरी यात्रा है।" श्रमणसूत्रगत गुरुवन्दन पाठ में भी ' जत्ता भे ?' इत्यादि पाठ में भी गुरुदेव से उनसे उनकी यात्रा सम्बन्धी कुशलक्षेम पृच्छा की गई है, उसका फलितार्थ भी 'आवश्यकवृत्ति' में आचार्य हरिभद्र करते हैं - " आपकी तप, संयम-नियमादि लक्षणा अथवा क्षायिक क्षायोपशमिक या औपशमिक भाव लक्षणा
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