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* १४६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ *
यह लक्षण कथमपि युक्तिसंगत नहीं है। कर्मजन्य इच्छा, द्वेष आदि अवस्थाओं के सिवाय यदि आत्मा अपने स्वाभाविक बुद्धि-ज्ञान गुण से भी रहित हो जायेगा, तब तो वह पत्थर के समान चेतनारहित जड़वत हो जायेगा फिर सर्वगण विनाशी निरर्थक मोक्ष के लिए मोक्षार्थी तपश्चरण, रत्नत्रय-साधना समाधि वगैरह क्यों करेंगे? तथा ज्ञान आत्मा का अभिन्न गुण है, वह गुणी आत्मा से पृथक् हो ही नहीं सकता। इस प्रकार आत्मा के सर्वगुणों का उच्छेद होना मोक्ष माना जाये तो गुणों के नष्ट होने से आत्मा का भी उच्छेद हो जायेगा, फिर मोक्ष की प्राप्ति किसको होगी? अतः यह कहना व्यर्थ हो जायेगा कि मोक्ष में आत्मा बुद्धि (ज्ञान) आदि गुणों से . शून्य हो जाती है। वैशेषिकों के इस प्रकार के मोक्ष-स्वरूप से खिन्न होकर गौतम ऋषि ने स्पष्ट कह दिया-“वृन्दावन में वास करना या वन में शृगाल के साथ रहना अच्छा है, किन्तु मैं (गौतम) वैशेषिक दर्शनोक्त मुक्ति में जाना नहीं चाहता। अतः मोक्ष में सभी गुण अपने वास्तविक स्वरूप में विद्यमान रहते हैं।' योगवाशिष्ठ मत में बन्ध और मोक्ष का लक्षण कितना संगत ? _ 'योगवाशिष्ठ' में संसार के पदार्थों के प्रति प्रबल वासना होने को ही बन्धन कहा गया है तथा मोक्ष की परिभाषा की गई है-“सम्यग्ज्ञान से प्रबोधित शुद्ध चित्त में सभी इच्छाएँ (वासनाएँ) नष्ट हो जाने पर चित्त की जो क्षय-दशा होती है, वह मोक्ष है।" हम देखते हैं कि योगवाशिष्ठ में बन्ध के कारणों में एकमात्र वासना को ही बताया है, जबकि जैनदर्शन में राग, द्वेष और कषाय मिथ्यात्व आदि बन्ध के कारण हैं। योगवाशिष्ठ में चित्त की शुद्ध अवस्था को मोक्ष कहा है, जबकि जैनदर्शन आत्मा की परम शुद्ध अवस्था को मोक्ष कहता है। . अद्वैतवेदान्त दर्शन में बन्ध और मोक्ष का स्वरूप
'अद्वैतवेदान्त' के अनुसार बन्ध का मूल कारण अविद्या (अज्ञान) है। साथ ही इस दर्शन का कहना है कि अविद्यारूप बन्धन केवल व्यावहारिक दृष्टिकोण से सत्य है, पारमार्थिक सत्य यह है कि जीव न कभी बन्धन में पड़ता है और न कभी मोक्ष को प्राप्त करता है। शंकराचार्य का कहना है कि बन्ध और मोक्ष दोनों केवल व्यावहारिक दृष्टि से ही सत्य हैं। वे कहते हैं-ज्ञान ही स्वयं मोक्ष है। ब्रह्मवेत्ता स्वयं
१. (क) वैशेषिकदर्शन (ख) वरं वृन्दावने, वासः शृगालेश्च सहोषितम्।
___ न तु वैशेषिकी मुक्तिं गौतमो गन्तु मिच्छति॥ -षड्दर्शन समुच्चय, पृ. २८७ २. (क) पदार्थ-वासनादाघ्यं बन्ध इत्यभिधीयते।। (ख) मोक्षो हि चेतो विमेलं सम्यग्ज्ञान-विबोधितम्।
-योगवाशिष्ठ और उसके सिद्धान्त से ५/२/५ तथा ५/७३/३५
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