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जैनदृष्टि सेमोक्ष:क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ?
मोक्ष बन्धन-सापेक्ष
भारत के समस्त आस्तिक दर्शनों और धर्मों ने मोक्ष की चर्चा की है, उन्होंने मानव-जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को ही माना है। परन्तु मोक्ष क्या है ? कैसे हो सकता है ? इस सम्बन्ध में सभी एकमत नहीं हैं। ___ मोक्ष शब्द मुच् धातु से निष्पन्न हुआ है। उसका शब्दशास्त्र की दृष्टि से अर्थ होता है-छूटना। छूटना किसी बन्धन से ही होता है। जो बँधा ही नहीं अथवा जो बाहर से किसी बन्धन में बँधा नहीं दिखाई देता, उसका क्या छूटना? एक गाय रस्से से बँधी है, रस्सा खुलने पर वह उस बन्धन से मुक्त हो जाती है। एक सिंह पिंजरे में बंद है, उसमें से निकाल देने पर वह पिंजरे से मुक्त हुआ कहा जाता है। कारागार में पड़े हुए बंदी को मुक्त कर दिया जाता है, तो वह बन्धन-मुक्त हो जाता है। अतः मोक्ष बन्धन-सापेक्ष है। जहाँ बन्धन नहीं, वहाँ मोक्ष नहीं और जहँ बन्धन है, वहाँ मोक्ष भी सम्भव है। ये भाव-बन्धन हैं; इसीलिए मोक्ष का विचार अत्यावश्यक है
हमें यहाँ अन्य सजीव-निर्जीव पदार्थों के बाह्य बन्धन और बाह्य मोक्ष से कोई प्रयोजन नहीं। हमें यहाँ अन्य संसारी जीवों के बन्धन और मोक्ष का विचार नहीं, मोक्ष-प्राप्ति के योग्य मानव के बन्धन और मोक्ष का विचार करना है स्थूलदृष्टि वाले मानव को बाहर में खोजने पर तो कोई बन्धन दिखाई नहीं देता। इसलिए वह प्रायः ऐसे कहता है कि मुझे परिवार, समाज, जाति आदि ने भी पकड़कर बाँध नहीं रखा है, स्वयं मैंने अपनी कल्पनाओं से इनके प्रति मेरेपन तथा अहंकार का बंधन डाल रखा है। इस कल्पित बन्धन से छूट जाऊँ तो मेरा मोक्ष है। यों तो हर व्यक्ति बाह्य बन्धन को तोड़ने का दावा कर सकता है, परन्तु बाह्य पदार्थों, व्यक्तियों, परभावों-विभावों, इष्ट संयोग-वियोगों या अनिष्ट वियोग-संयोगों अथवा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के साथ जो राग-द्वेष, मोह, आसक्ति-घृणा, अहंकार-मकार, ममता आदि का बंधन है, क्या वह उसे बिना सत्पुरुषार्थ किये, बिना सोचे-समझे तोड़ पाता है ? उक्त बन्धनों को इसलिए नहीं तोड़ पाता कि उसके
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