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ॐ १४२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
समाप्त करने के लिए है? क्या अपने विनाश के लिए इतने उग्र तपश्चरण किये जाते हैं ? क्या अपने अस्तित्व को सदा के लिए मिटाना ही शान्ति है ?? भगवान महावीर द्वारा निर्वाण-विषयक समाधान
भगवान महावीर ने गणधर प्रभास स्वामी की इस शंका का युक्तिसंगत समाधान किया है-प्रदीप की तरह आत्मा का सर्वनाश मानना ठीक नहीं है। जैसे दूध की पर्याय नष्ट हो जाने पर दही के रूप में परिणत हो जाती है। मुद्गर आदि के द्वारा नष्ट किया हुआ घड़ा ठीकरे के रूप में बदल जाता है। इसी प्रकार दीपक , के बुझ जाने पर वह अन्धकार के रूप में परिणत हो जाता है। उसकी आग, अन्धकार के रूप में दिखाई भी देती है। बहुत-सी वस्तुएँ सूक्ष्म होने से नहीं भी मालूम पड़तीं, जैसे-बिखरते हुए काले बादल। बहुत-से पुद्गल विकार को प्राप्त होने पर दूसरी इन्द्रिय से ग्रहण किये जाते हैं। जैसे-नमक, गुड़ आदि बहुत-से पदार्थ पहले चक्षु से जाने जाते हैं, किन्तु साग आदि में मिलने पर केवल रसनेन्द्रिय से जाने जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि पुद्गलों के परिणाम बहुत ही विचित्र हैं। कुछ पुद्गल सूक्ष्मता को प्राप्त होने पर बिलकुल दिखाई नहीं देते, इसलिए किसी भी वस्तु का रूपान्तर हो जाने पर उसका सर्वथा नाश मानना युक्तिसंगत नहीं है। दीपक भी पहले चक्षुरिन्द्रिय से जाना जाता है, किन्तु बुझने पर घ्राणेन्द्रिय से जाना जाता है। उसका सर्वथा समुच्छेद नहीं होता, इसी प्रकार जीव भी निर्वाण होने पर सिद्ध-स्वरूप (परमात्मा) बन जाता है, उसका नाश नहीं होता। इसलिए जैनदृष्टि से मोक्ष या निर्वाण है-जीव (आत्मा) के विद्यमान रहते हुए दुःख आदि का सर्वथा नाश हो जाना।
'उत्तराध्ययनसूत्र' की पहले प्रस्तुत की हुई गाथा में निर्वाण का महत्त्वपूर्ण स्वरूप बताते हुए कहा गया है-निर्वाण अबाध होता है। अर्थात् समस्त विघ्न-बाधाओं को मिट जाना, उन्हें पार कर जाना निर्वाण है। निर्वाण का एक अर्थ है-अव्याबाध। यानी सर्वकर्ममुक्त आत्मा का ज्ञान, दर्शन, शक्ति और आनन्द (सुख) अव्याबाध बन जाना निर्वाण है। इसका फलितार्थ है-निर्वाण में आत्मा के १. (क) 'श्रमणसूत्र' (उपाध्याय अमर मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ३२५-३२६ (ख) दीपोयथा निर्वृतिमभ्युपेतो; नैवावनिं गच्छति, नान्तरिक्षम्।।
दिशं न कांचित् विदिशं न कांचित; स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥२८॥ जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न कांचित् विदिशं न कांचित्, क्लेश क्षयात केवलमेति शान्तिम्॥२९॥
-सौदरानन्द महाकाव्य १६/२८-२९ २. (क) देखें-विशेषावश्यक भाष्य में गणधरवाद की भाषाएँ १५४९
(ख) 'जैनसिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ४' से सारांश ग्रहण, पृ. ६३-६४
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