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४ मोक्ष : क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ ? १३५४
देव कोई भी संसारी जीव वास्तव में सुखी नहीं है ।" इस पर फिर शंका की - "यदि सांसारिक सुख कर्मोदय से होने से वास्तविक नहीं है, तो दुःख भी कर्मों के कारण होने से वास्तविक नहीं मानना चाहिए । इसलिए स्वयं आत्मा द्वारा अनुभव किये जाने वाले सुख-दुःख को वास्तविक कहना भी ठीक नहीं है।" इसके उत्तर में भगवान ने कहा उसका सारांश यह है कि वास्तविक मुख तभी होता है, जव पुराना रोग बिलकुल मिट जाए, नया रोग पैदा होने के कारण न रहे, ऐसी निरामय स्वस्थ अवस्था मोक्ष ही है । वहाँ इच्छा, राग-द्वेष आदि सभी दुःख के कारण नष्ट हो जाते हैं और कर्म न होने से नवीन दुःख उत्पन्न नहीं होते। इसलिए मोक्ष में ही दुःख का सर्वथा नाश और सुख का आत्यन्तिक लाभ होता है । संसारी जीवों का कामना-वासना-तृष्णादि जनित सुख वास्तविक नहीं है, उससे क्षणिक तृप्ति हो जाती है, बाद में अथवा परिणाम में वह दुःखी होता है । इच्छाओं की तृप्ति में वास्तविक सुख नहीं है, सुखाभास 'है।'
शरीरवादी लोगों का मोक्ष में ऊब और युक्तिपूर्वक खण्डन
मोक्ष-सुख के विषय में कुछ लोगों का तर्क है कि जो लोग रात-दिन ऐश-आराम में रहने वाले हैं, सुख-सुविधाओं में जीने वाले हैं, ऐसे व्यक्ति अहर्निश धन कमाने, सुख-साधन जुटाने, कामभोगों में आनन्द मानने में व्यस्त रहते हैं। वे सोचते हैं - समाज में प्रतिष्ठा के साथ जीना है तो ऐसी उठापटक करनी ही पड़ेगी । ऐसे व्यक्तियों को राग-द्वेषवर्द्धक कार्यों या साहसिक कार्यों को करने में आनन्द आता है। राग-द्वेष और संघर्ष न हो तो उनका मन बेचैन रहता है, निकम्मे बैठे-बैठे उनका जी ऊब जाता है। ऐसे लोगों के सामने निर्वाण की, मोक्ष की, ध्यान की या वीतरागता की बातें कहें तो उन्हें बिलकुल नीरस लगती हैं, सुनते-सुनते ऐसे लोग ऊब जाते हैं। कहीं लड़ाई-झगड़े हों, संघर्ष हो, टी. वी. पर फिल्म देखना हो, व्यवसाय के लिए रातभर जागना हो तो उन्हें ऊब नहीं आती, किन्तु मोक्ष आदि की बात सुनने में दस-पन्द्रह मिनट भी उन्हें भारी लगते हैं। वे अपनी इस . विषमतापूर्ण दृष्टि से मोक्ष में स्थायी रूप से रहने में ऊब जाना मानते हैं । परन्तु जिनका ध्यान में या कायोत्सर्ग में दीर्घकाल तक खड़े रहने या बैठने का जप में, समाधि में कई घंटों तक शान्ति एवं स्वस्थतापूर्वक रहने का अनुभव है। उनका कहना है कि समाधि में बैठा हुआ आदमी ऊबता नहीं है, उसके भीतर सुख का ठाठें मारता हुआ सागर लहराने लगता है। भगवान बाहुबली एक वर्ष तक कायोत्सर्ग मुद्रा में अडोल खड़े रहे। उनके शरीर पर बेलें छा गई थीं । पक्षियों ने उनके शरीर पर घोंसले बना दिये थे। एक महा-मनीषिका मन्तव्य है कि साठ
१. विशेषावश्यक भाष्य में गणधरवाद, गा. १५४९ ( जैनसिद्धान्त बोल संग्रह), भा. ४, पृ. ६३-६५
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