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ॐ मोक्ष : क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ ? 8 १३९ ॐ
भावनाओं, अनित्यादि अनुप्रेक्षाओं की वृद्धि होने से आत्मा के साथ पूर्व सम्बन्ध रागादि का समूल उच्छेद हो जाता है। 'कर्मग्रन्थ' में भी इस तथ्य का समर्थन किया गया है कि जैसे स्वर्ण और मिट्टी का, दूध और घी का अनादि सम्बन्ध होते हुए भी वे प्रयत्न-विशेष से पृथक्-पृथक् किये जा सकते हैं, वैसे आत्मा और कर्म का (कृत्रिम) अनादि सम्बन्ध होते हुए भी उसका अन्त हो सकता है। लोकप्रकाश' के अनुसार-जैसे सोने और पाषाणरूप मल का (कृत्रिम) मिलाप अनादिकालिक है, वैसे ही जीव और. कर्म का सम्बन्ध (कृत्रिमरूप से) अनादिकालिक है, तथापि स्वर्ण को पाषाणरूप मल से अलग किया जाता है, उसी प्रकार आत्मा को कर्ममल से अलग किया जाता है। निर्जरा और बन्ध के उल्लेख से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि होते हुए निर्जरा के द्वारा टूट सकता है; क्योंकि कर्म और आत्मा का यह अनादि सम्बन्ध कर्म-परम्परा के रूप में (प्रवाहरूप) तथा कृत्रिम है, कर्म-विशेष के रूप में नहीं है। 'आवश्यकवृत्ति' में भी कहा गया है-कोई व्यक्ति शरीर पर तेल लगाकर धूल में लोटे तो वह धूल उसके सारे अंग में चिपक जाती है, उसी प्रकार मिथ्यात्वादि कर्मबन्ध हेतुओं से संसारी जीव के आत्म-प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है, तब कर्मयोग्य अनन्त पुद्गल परमाणुओं का आत्म-प्रदेशों के साथ सम्बन्ध हो जाता है, किन्तु जैसे प्रयत्नपूर्वक साबुन-पानी आदि से शरीर पर लगी धूल को साफ करके उसे शुद्ध किया जा सकता है, वैसे ही आत्मा भी संवर और निर्जरा से कर्ममल को हटाकर या रोककर शुद्ध किया/रखा जा सकता है।' जैसे कि 'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा गया है-“संयम और तप से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करके (यानी कर्मों का आत्मा से सर्वथा पृथक् करके) जयघोष और विजयघोष मुनि अनुत्तर सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त हुए।"
कर्म और आत्मा का सम्बन्ध परम्परा से अनादि, किन्तु सादि-सान्त भी कर्म और आत्मा के सम्बन्ध को अनादि कहने का आशय यह है कि कर्म का प्रवाह = कर्म और आत्मा के सम्बन्ध (संयोग) की परम्परा अनादि है, परन्तु किसी कर्म-विशेष का आत्मा के साथ सम्बन्ध अनादि नहीं है, वह सादि-सान्त है। वह किसी समय-विशेष में बँधता है और अपनी कालावधि पूर्ण होने पर आत्मा से पृथक् हो जाता है। आत्मा से कर्मों का सर्वथा पृथक् होना, सर्वथा सम्बन्ध टूट जाना ही तो मोक्ष है। अतः मोक्ष के अस्तित्व से कैसे इन्कार किया जा सकता है।' १. आवश्यकमलय वृत्ति २. उत्तराध्ययन, अ. २५/४५ ३. (क) षड्दर्शन समुच्चय, कारिका ५२ की टीका, पृ. २७९
(ख) 'कर्मग्रन्थ' (प्रस्तावना) (व्याख्या) (मरुधर केसरी) से भाव ग्रहण, भा. १ (ग) द्वयोरप्यनादि सम्बन्धः कनकोपल सन्निभः।
-लोकप्रकाश ४२४ (घ) 'जैन-कर्मसिद्धान्त का उद्भव और विकास' से भाव ग्रहण, पृ. १९४
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