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* १३४ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ *
निर्विकल्पता आदि। विषमतामूलक कर्मसंस्कारों का तो मोक्षगमन से पहले ही सर्वथा उच्छेद कर दिया जाता है। ___ मोक्ष में जब शरीरादि पर-भाव ही नहीं है तो मुक्तात्मा में किसी प्रकार का विकल्प ही नहीं उठता, फिर क्यों वे शरीर का निर्माण करें? क्यों भिन्न-भिन्न रूप धारण करें, क्यों किसी के साथ पुत्रकलत्र-शत्रु-मित्रादि का सम्बन्ध जोड़ें ? किसके । लिये यह सब जंजाल मोल लें? क्यों वे अशन, वसन, धन, धाम आदि बनायें, लें
और बसायें? किसके लिए भिक्षा माँगें? क्यों वे आहार, विहार, निहार करें? आत्मा तो अविनाशी और अभेद्य है, फिर किसकी रक्षा के लिए प्रयत्न करें। जब बाह्य इन्द्रियाँ ही नहीं हैं, तब पाँचों इन्द्रियों के विषयों की उन्हें आवश्यकता या इच्छा ही रहती। जहाँ शरीर ही नहीं, वहाँ सुन्दर महल, पलँग, सोफासेट या शरीर की साज-सज्जा, नौकर-चाकर, बाग-बगीचे या सुन्दर ललना आदि की आवश्यकता ही क्या? आवश्यकता के बिना उसकी पूर्ति के लिए व्यर्थ ही प्रयत्न क्यों? वे लक्ष्यहीन दिशा में व्यर्थ पुरुषार्थ करके क्यों व्यग्र होते? व्यग्रता और व्याकुलता के अभाव में किसी प्रकार का दुःख ही कहाँ रहा? इसलिए सिद्ध-परमात्मा समस्त दुःखों का अन्त करके निर्वाण प्राप्त करते हैं।' मुक्त आत्माओं का परम सुख वास्तविक ___ मुक्तात्माओं के जन्म, जरा, व्याधि, मरण, इष्ट-वियोग (अनिष्ट-संयोग), अरति, शोक, क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, काम, क्रोध, मद, शाठ्य, तृष्णा, राग, द्वेष, चिन्ता, उत्सुकता आदि सभी दुःख नष्ट हो जाते हैं, इसलिए उन्हें परम सुख (आत्मानन्द) प्राप्त होता है। किसी तरह की बाधा (या अड़चन या इच्छा) न होने से तथा सर्वज्ञ होने से सिद्धात्मा परम सुखी होते हैं। किसी प्रकार की व्याबाधा न होना ही तथा आवरणों का अभाव होना ही परम सुख है। ___ ग्यारहवें गणधर प्रभास स्वामी ने प्रश्न किया-सुख का कारण पुण्य है और दुःख का कारण है-पाप। अतः मुक्त आत्माओं को जैसे पाप नष्ट हो जाने से दुःख नहीं होता, उसी प्रकार पुण्य नष्ट हो जाने से सुख भी नहीं होना चाहिए। फिर मोक्ष में अव्याबाध सुख का कथन कैसे सत्य हो सकता है? भगवान ने कहा"पुण्य से होने वाला सुख वास्तव में सुख नहीं है, क्योंकि वह कर्मों के उदय से होता है, उन कर्मों के हट जाने पर नहीं होता। इसी कारण बड़े-बड़े चक्रवर्ती या १. (क) 'शान्ति-पथ-दर्शन' से भावांश ग्रहण, पृ. १७३-१७४ (ख) णित्थिण्ण-सव्व-दुक्खा, जाइ-जरा-मरण-बंधण-विष्पमुक्का।
अवाबाह सुक्खं अणुहोति सासयं सिद्धा॥२१॥ अतुल-सुखसागरगया, अव्वाबाहं अणोवमं पत्ता। सब्बमणागयद्धं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता॥२२॥ -औपपातिकसूत्र, सू. १८८-१८९
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