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ॐ १३२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ *
भोगवादी वीरों से मोक्ष को तथा मोक्ष के स्वरूप को न तोलें
ऐसे बुद्धिजीवी लोग शरीर के नियमों को आत्मा की अशरीरावस्थारूप या शुद्ध स्वरूपावस्थानरूप मोक्ष के नियमों के साथ तोलना चाहते हैं अपने ही भोगवादी बाँटों से। परन्तु जैसी कि वे कल्पना करते हैं, वैसा मोक्ष का स्वरूप नहीं है। वे एक सांसारिक शरीरधारी निगोद जीव की कल्पना से मोक्ष की तुलना करते हैं, परन्तु निगोद में अनन्त काल तक जन्म-मरण के चक्र में मूर्छित चेतना का जीवन है, जबकि मोक्ष में अपने अव्याबाध अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्ति में रमण करते हुए जाग्रत चेतना का जीवन है। सोचिये जरा, जैन-तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जो व्यक्ति एकेन्द्रिय निगोद स्थावर जीवन में चला गया, वह पत्थर की भाँति अनन्त काल जड़वत् जीवन जीता है। वह न बोलता है, न चलता है, न ही क्रीड़ा करता है, किन्तु जन्म-मरण के चक्र में वह बार-बार परिभ्रमण करता है। गाढ़ कर्मबन्ध के कारण वह अनन्त काल तक मूर्छित-सा जीवन जीता है। निगोद के शरीर में रहकर अत्यन्त दुःखमय सशरीर जीवन जीना अच्छा है या अशरीरी बनने के लिए मोक्ष-प्राप्ति योग्य पुरुषार्थ करना और एकान्त सुखरूप मोक्ष का जीवन जीना : अच्छा है ? जन्म-मरणादि रहित मोक्ष कितना अधिक सुखमय ? .
परन्तु ऐसे संसार के जन्म-मरणादि के चक्र में नाना दुःखों से ग्रस्त रहते हुए भी जीव को मोहवश कोई कठिनाई महसूस नहीं होती, जबकि अशरीरी होकर मोक्ष जाने में कठिनाई मालूम होती है। जरा तुलना करके देखने पर संसार और मोक्ष का अन्तर स्पष्टतः समझ में आ जाएगा। क्या निगोद में अनन्त बार जन्म-मरण करने और मूर्छित अवस्था में पड़े रहने की अपेक्षा जन्म-मरणादि से रहित होकर जाग्रत अनन्त ज्ञानादि से अव्याबाध सुख में मग्न होकर रहना अच्छा नहीं है? नरक, तिर्यञ्च और मनुष्य आदि विविध गतियों और योनियों में भटकते रहने और नाना दुःखों से पीड़ित और व्याकुल रहने की अपेक्षा गति, शरीर आदि से रहित होकर परम सुख में मग्न होने हेतु मोक्ष में जाना सभी दृष्टियों से श्रेष्ठ है।' ___ ऐसे संसारचक्र में प्राणी कदाचित् पुण्ययोग से एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय तक में जन्म ले ले, तो भी उसे मनुष्यों और देवों के जितना भी सुख कहाँ नसीब होता है? प्रबल पुण्ययोग से कदाचित् वह देव भी बन जाए, तो भी उसे देव-भव से मोक्ष प्राप्त करना शक्य नहीं है। अतिशय पुण्ययोग से मनुष्य-भव प्राप्त करने पर ही मोक्ष-प्राप्ति शक्य है। इसीलिये कहा गया-“दुल्लहे खलु माणुसे भवे।"-मनुष्य-जन्म मिलना बहुत ही दुर्लभ है। देव-दुर्लभ मनुष्य-जन्म
१. 'जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएँ' से भाव ग्रहण, पृ. १०९-११०
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