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@ १३० * कर्मविज्ञान : भाग ८ 8
क्या इतनी दीर्घकालिक तपःसाधना के बाद रूखा-सूखा मोक्ष मिलेगा? ___ अतः कुछ बुद्धिजीवी और कुछ सुख-सुविधावादी शरीरमोही जीव यह भी कह वैठते हैं-जिस मोक्ष के लोग दिन-रात गीत गाते हैं। आध्यात्मिक पुरुष जिस मोक्ष की इतनी प्रशंसा करते हैं, इतने सुखों का सब्जबाग दिखाते हैं और जिस मोक्ष को प्राप्त करने के लिये इतना ज्ञान, श्रद्धा-भक्ति, कठोर चारित्र-पालन एवं कठोर दीर्घतप करते हैं, इतनी दीर्घकालीन साधना के बाद क्या ऐसा ही रूखा-सूखा मोक्ष मिलेगा? जहाँ पत्थर की शिला पर निकम्मा जीवन जीने या जड़वत् पड़े रहना होता है, वहाँ भला क्या सुख प्राप्त होता होगा?
ये और इस प्रकार की अनेकों मनगढ़ंत कल्पनाएँ मोक्ष के विषय में कुछ लोग करते हैं। मोक्ष के विषय में अनेकों संशय पाल रखे हैं ऐसे लोगों ने। वे कहते हैंऐसे मोक्ष को अनन्त सुख का स्थान मानना जान-बूझकर अँधेरे कुएँ में कूदना है। मोक्ष जैसी इतनी तुच्छ वस्तु के लिए अपने अनेक सुखों का बलिदान करना भला कौन सुशिक्षित बुद्धिमान् चाहेगा?' चार्वाक तो आत्मा और मोक्ष दोनों को नहीं मानता ___इसी दृष्टि से 'चार्वाक' ने कह दिया-“मोक्ष किसके लिए चाहिए? आत्मा के लिए ही न ! हम आत्मा को ही नहीं मानते। यह पंच भौतिक शरीर ही सब कुछ है। यह नष्ट हो जाता है तब इसे जला दिया जाता है, भस्मीभूत होने पर इस शरीर का कहीं आना-जाना नहीं है। जब तक जीओ तब तक इस शरीर से जितना सुखभोग कर सकते हो, कर लो।" मोक्ष की अशरीरी अवस्था : शरीर की भोगावस्था से बिलकुल भिन्न __ मोक्ष के विषय में जो कुछ कल्पना पूर्व पृष्ठों में की गई है, वह शरीरवाद से सम्बन्धित है, यानी पूर्व पृष्ठों में जितनी भी मोक्ष-विषयक कल्पना की गई है, वह शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव परपदार्थ-सापेक्ष है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो खाना-पीना, ऐश-आराम करना, मित्रों या परिजनों के साथ बातचीत करना, मनोरंजन, विविध क्रीड़ा-कौतुक, सत्ता, सम्पत्ति और शरीर-शक्ति के द्वारा इन्द्रिय-विषयों में आसक्त होकर कामभोगों का मनचाहा उपभोग करना ये और इस प्रकार के सब व्यवहार शरीर और मन के साथ जुड़े हुए हैं। यदि शरीर न हो, १. (क) 'शान्ति-पथ-दर्शन' से भाव ग्रहण, पृ. १७२-१७३
(ख) 'जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएँ' (आचार्य महाप्रज्ञ) से भावांश ग्रहण, पृ. १८७ २. देखें-चार्वाकदर्शन का सूत्र
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः॥
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