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ॐ १२८ * कर्मविज्ञान : भाग ८ 8
है। अतएव आत्मा सदैव बन्धनबद्ध ही नहीं रहती, वह पुरुषार्थ करे तो पूर्ण रूप से कर्मबन्ध और उसके कारणों का क्षय (तीव्र निर्जरा) करके सर्वथा बन्धनमुक्त भी हो सकती है, पूर्ण मोक्ष भी प्राप्त कर सकती है। आत्मा स्वयं ही बँधा है, इसलिए मुक्त भी स्वयं ही हो सकता है
जैन-कर्मविज्ञान का स्पष्ट आघोष है-आत्मा ही अपने कर्म का कर्ता है और वह स्वयं उस कर्म का विकर्ता (क्षयकर्ता) है अथवा फलभोक्ता है। बंधनवद्ध रहना आत्मा का स्वभाव नहीं है, बन्धन से विमुक्त रहना या होना ही आत्मा का निजस्वरूप है। कर्म का बन्धन अवश्य है, किन्तु व्यक्ति यह दृढ़ विश्वास और संकल्प के साथ चले कि मैं स्वयं ही कर्म से बँधा हूँ और स्वयं ही कर्मों को काटकर इनसे मुक्त हो सकता हूँ। मेरे अतिरिक्त ऐसी कई शक्ति नहीं है, जो मुझे अपनी इच्छा के विरुद्ध बन्धन में डाल दे और कोई दूसरी शक्ति भी ऐसी नहीं है, जो मेरे कर्मबन्ध को काट सके, मुझे मुक्त कर सके, मोक्ष प्राप्त करा दे। मैं स्वयं बंधन में बँधा हूँ और स्वयं ही इन बन्धनों से मुक्त होऊँगा। इसलिए जो आत्मा कर्मबद्ध है, वह संवर और निर्जरा से उन कर्मों का क्षय करके एक दिन बंध से मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त कर सकेगा।
एक बात और है-केवल कर्म कर्मबन्ध का कारण नहीं होता। कर्म के साथ चेतना हो (यानी कर्मचेतना हो), तभी कर्मबन्ध होता है। अतः चेतना में ही बन्ध होता है और चेतना में ही मोक्ष होता है। बुद्धिजीवी एवं अज्ञानी लोगों की मोक्ष के प्रति ऊटपटांग कल्पना ___ जिन लोगों को भावमोक्ष का पता नहीं है, जिन लोगों ने सुना या पढ़ा है कि मोक्ष एक क्षेत्र है, लोकाकाश का एक विशेष टुकड़ा है, मोक्ष में जाने वाला व्यक्ति वहीं लोक के अग्र भाग पर (लोकान्त में) जाकर स्थित हो जाता है। वहाँ न किसी से बोलना है, न चलना है, न ही किसी से बातचीत करना है। वहाँ कोई चहल-पहल नहीं, कोई कार्य नहीं। किसी से कोई सम्बन्ध नहीं। केवल मौन, निःस्पन्द, शान्ति से एक जगह बैठे रहना है। वहाँ न कोई धर्म है, न धर्म का प्रचार और उपदेश है, न कोई कर्म है। वहाँ मनोरंजन का कोई साधन नहीं, कोई खेल नहीं, खाने-पीने के लिए स्वादिष्ट व्यंजन या खाद्य और पेय भी वहाँ नहीं है। सेवा करने वाले कोई नौकर-चाकर भी वहाँ नहीं हैं। वहाँ जाने पर भूख-प्यास भी नहीं लगती। वहाँ न कोई सभा-सोसाइटी है, न कोई धर्मसंस्था है। सत्संग-मंडल भी नहीं है कि हम वहाँ जाकर सत्संग कर सकें, प्रवचन सुन सकें, चर्चा-वार्ता कर सकें। न ही वहाँ रहने के लिए १. अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय-सुप्पट्ठिओ॥
-उत्तरा. २०/३७
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