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मोक्ष: क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ ? १२७
बन्धकारक है। उसी से सर्वथा मुक्त होना, मुक्ति पाना मोक्ष है। पूर्वोक्त भावसंसार * पर विजय पाना ही मोक्ष पाना है । वह द्रव्यसंसार ( दृश्यमान जगत्) में रहते हुए राग और द्वेष के अवसर पर मन साम्यभाव में स्थित रखना भावसंसार पर विजय पाना है। इसी तथ्य को ‘भगवद्गीता' में अभिव्यक्त किया है - " इहैव तैर्जितः सर्गो, येषां साम्ये स्थितं मनः ।” अर्थात् जिनका मन समभाव में स्थित है, उन्होंने यहीं (द्रव्यसंसार में रहते हुए भी) सर्ग (भावसंसार) को जीत लिया, समझो।
कुछ लोगों ने इसको लेकर यह कहना शुरू किया कि मरने के बाद ही मोक्ष मिलता है, किन्तु यह सत्य नहीं है। जो (भावबन्धनों से मोक्ष) वर्तमान क्षण में नहीं मिलता, वह मरने के बाद कैसे मिलेगा ? यदि वर्तमान क्षण में मोक्ष की अनुभूति नहीं हुई तो मरने के बाद भी मोक्ष कैसे मिल सकेगा ? मोक्ष तो इस जीवन में और इसी क्षण में भी हो सकता है, बशर्ते कि वह पूर्वोक्त भावसंसार के कारणों से मुक्त हो जाए। आचार्य उमास्वाति ने ‘प्रशमरति' में बताया है- "जो व्यक्ति जाति, कुल, बल, रूप, ऐश्वर्य, तप, श्रुत (ज्ञानं) और लाभ के मद को निरस्त कर देता है, कामवासना पर विजय पा लेते हैं, कायिक, वाचिक और मानसिक विकारों से रहित हो जाते हैं, पर-पदार्थों की आशा और आकांक्षा से विनिवृत्त हो जाते हैं, उन सुविहित व्यक्तियों को यहीं (इसी संसार या जन्म) में मोक्ष प्राप्त हो जाता है ।" "
अत: मुमुक्षु मानव को संसाररूप बन्धन से मुक्त होने (मोक्ष पाने) का पुरुषार्थ करना चाहिए।
सदैव कर्मबद्ध रहना आत्मा का स्वभाव नहीं
कुछ दार्शनिकों का कहना है- आत्मा नित्य ( कर्मों से) बद्ध ही रहती है, उसकी मुक्ति कभी नहीं हो सकती। इसके विपरीत ज़ैनदर्शन का कथन है- बन्धन से मुक्ति क्यों नहीं होगी? वह तो आत्मा का स्वभाव ही है । एक भी क्षण ऐसा नहीं है, जिसमें आत्मा अपने पूर्वकृत कर्मों का क्षय न करता हो । आत्मा में जहाँ नवीन कर्मों को बाँधने की शक्ति है, वहाँ उसमें पुराने कर्मों को क्षय करने की भी शक्ति है। भले ही वह कर्मक्षय सविपाक निर्जरा ( भोग भोगकर कर्मक्षय करने) से हो रहा हों अथवा अविपाक निर्जरा (बिना भोगे ही कर्मक्षय करने) से हो रहा हो। दोनों ही स्थिति में कर्मक्षय की प्रक्रिया चालू रहती है, जब आंशिक रूप से कर्मक्षय की अर्थात् कर्ममुक्ति की प्रक्रिया चालू है तो एक दिन पूर्ण रूप से कर्मक्षय हो सकता
१. (क) इष्टानिष्टार्थमोहादिछेदात् चेतः स्थिरं ततः । ध्यानं रत्नत्रयं तस्मात् मोक्षस्ततः सुखम् ॥
(ख) संसारस्स मूलं कम्मं, तस्स वि हुति य कसाया । (ग) निर्जितमेद-मदनाचं वाक्काय-मनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ।
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- तत्त्वानुशासन ७४ - आचारांग नियुक्ति १८९
- प्रशमरति प्रकरण २३८
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