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* बत्तीस योग-संग्रह : मोक्ष के प्रति योग, उपयोग और ध्यान के रूप में १२३
अयोगी होने से लेकर निर्वाणपद तक
'दशवैकालिकसूत्र' में भी इसी तथ्य को उजागर किया है कि जब समस्त योगों का निरोध करके आत्मा शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर लेती है, तब सर्वकर्मों का समूल क्षय करके कर्मरजरहित होकर सिद्धि को प्राप्त हो जाती है। ऐसी विशुद्ध मूल स्वरूप की स्थिति प्राप्त होते ही, यानी देह का सदा के लिए त्याग करते ही वह ऊर्ध्वगमन करती है। जिस प्रकार धनुष से निकला हुआ बाण अपने लक्ष्य स्थान पर जाकर ठहरता है, उसी प्रकार यह आत्मा भी यहाँ से चलकर सीधा लोक के मस्तक (अग्रभाग = अन्तभाग) में जाकर स्थित हो जाती है, वह सिद्ध, बुद्ध और शाश्वत हो जाती है। वह अपने सच्चिदानन्द स्वरूप में रमण करती हुई सदा के लिए सिद्धगति' (सिद्धालय ) में स्थित हो जाती है। इसे ही सिद्धपद, निर्वाणपद या मोक्षपद कहते हैं।
धर्म - शुक्लध्यान के मिलकर ३२ प्रकार के योग मोक्ष-प्राप्ति में साधक होते हैं
'स्थानांगसूत्र' में शुक्लध्यान के ४ लक्षण बताए हैं - विवेक, व्युत्सर्ग, अव्यथ और असम्मोह । ४ आलम्बन हैं - शान्ति (क्षमा), मुक्ति (निर्लोभता), आर्जव और मार्दव एवं ४ अनुप्रेक्षाएँ हैं- अपायानुप्रेक्षा, अशुभानुप्रेक्षा, अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा और 'विपरिणामानुप्रेक्षा । इस प्रकार शुक्लध्यान के पूर्वोक्त ४ भेदों को क्रियान्वित करने के लिए ये १२ प्रकार सहयोगी बनते हैं।
-यों १६ धर्मध्यान के और १६ शुक्लध्यान के ये ३२ प्रकार के योग शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के साधन बनते हैं । ३
१. जया जोगे निरुंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ । तया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ ॥२४॥ जया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ ॥ २५ ॥ २. स्थानांगसूत्र, स्था. ४, उ. १, सू. ६९-७२ ३. धम्मोसोलसविधं एवं सुक्कंपि ।
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- दशवैकालिक, अ. ४, सू. २४-२५
-आचार्य जिनदास महत्तर
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