________________
ॐ १२२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
सम्भावना को कोई अवकाश नहीं होता। इसलिए इसे सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाती शुक्लध्यान कहते हैं।
(४) समुच्छिन्न-क्रियानिवृत्ति-जिस समय श्वास-प्रश्वास इत्यादि सुक्ष्मक्रियाओं. का निरोध हो जाता है और आत्म-प्रदेशों में सब प्रकार के कम्पन-व्यापार बंद हो जाते हैं, उस समय समुच्छिन्न-क्रियानिवृत्ति नामक शुक्नध्यान होता है। इस अवस्था में साधक की आत्मा सब प्रकार के स्थूल-सूक्ष्म तथा मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों से सर्वथा पृथक् हो जाती है। यह ध्यान चौदहवें अयोगीकेवली नामक गुणस्थान में प्राप्त होता है। इस ध्यान में साधक के नामकर्म, गोत्रकर्म, आयुष्यकर्म और वेदनीयकर्म, ये शेष चारों अघातिकर्म भी नष्ट हो जाते हैं और वह आत्मा पूर्ण शुद्ध, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और सर्वदुःखों से रहित हो जाती है। वह सर्वकर्मों से मुक्त जीव सर्वथा अक्रिय, निर्विकल्प, निष्कलंक, निरामय, शान्त, निर्वृत, अजर, अमर, निरंजन-निराकार हो जाता है और पूर्ण अव्यावाधसुखरूप मोक्षपद-परमात्मपद को प्राप्त हो जाता है। यह मोक्षपद सादि-अनन्त है। उससे फिर कभी इस आत्मा की पुनरावृत्ति (पुनः संसार में आगमन) नहीं होती। शुक्लध्यान के : इन अन्तिम दोनों भेदों में किसी प्रकार के भी श्रुतज्ञान का आलम्बन नहीं रहता, इसलिए ये दोनों निरालम्बन ध्यान हैं। चारों शुक्लध्यानों में योगनिरोध का क्रम
शुक्लध्यान के इन चारों भेदों में योगनिरोध का क्रम इस प्रकार है-सर्वप्रथम बादर (स्थूल) काययोग को आश्रित करके मन और वचन के स्थूलयोग को सूक्ष्म बनाते हैं, तदनन्तर सूक्ष्म मन-वचनयोग के आश्रय से काया के स्थूलयोग का भी निरोध करते हैं, फिर सूक्ष्मकाययोग में स्थिति करके मन और वचन के सूक्ष्मयोग का भी निरोध कर देते हैं। यहाँ तक तीसरा शुक्लध्यान पूर्ण हो जाता है। तत्पश्चात् तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान की समाप्ति पर जब चौदहवाँ गुणस्थान प्राप्त होता है, यानी जब तेरहवें गुणस्थान के समाप्त होने में अ, इ, उ, ऋ, लु, इन पाँच लघु अक्षरों के उच्चारण जितना समय बाकी रह जाता है, तब अयोगीकेवली नामक १४वाँ गुणस्थान प्राप्त होता है। उसके प्राप्त होते ही केवली भगवान सूक्ष्म काययोग का भी निरोध कर देते हैं। वे अयोगी, सर्वयोगों से रहित, शैलेशी अवस्था प्राप्त और निष्प्रकम्प हो जाते हैं।
१. 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. ३७ २. वही, पृ. ३७ ३. वही, पृ. ३८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org