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१०६ कर्मविज्ञान : भाग ८
सकता है; प्रथम कोटि के व्यक्तियों की चेतना का अधोरोहण होता रहता है, जबकि बीच के यांत्रिक कोटि के व्यक्ति की चेतना का विकास यथास्थितिरूप होता है ।
अतः आत्म-साधना द्वारा साध्य - प्राप्ति के लिए योग्य अधिकारी वही हो सकता है, जो प्राप्त त्रिविध साधनों का शुभ रूप में या शुद्ध रूप में उपयोग करता है । ' प्राप्त साधनों का सदुपयोग या शुद्धोपयोग ही साध्य - प्राप्ति कराता है
प्राप्त साधनों का सदुपयोग या शुद्ध उपयोग करने पर ही व्यक्ति साध्य की प्राप्ति कर लेता है या साध्य के निकट पहुँच जाता है। एक अनघड़ या अप्रशिक्षित व्यक्ति के हाथ में बढ़िया कार सौंप दी जाये, जो उसे चलाना नहीं जानता अथवा. चलाना जानते हुए भी शराब या नशीली वस्तुएँ खा-पीकर चलाता है, तो दोनों ही प्रकार के व्यक्ति कार को तो नष्ट-भ्रष्ट करेंगे ही, स्वयं भी अपना हाथ-पैर तुड़वा बैठेंगे या एक्सीडेण्ट करके स्वयं को या सवारों को भी घायल कर बैठेंगे या मृत्यु के मुँह में पहुँचा देंगे। परन्तु जो व्यक्ति कार चलाने में कुशल है, अनुभवी हैं, मद्यपान आदि का त्यागी है, बाहोश है, विवेकी है, वह कुशलतापूर्वक कार चलाकर अपने गन्तव्य स्थान पर स्वयं भी सही-सलामत पहुँच जाता है और कार में सवार व्यक्तियों को भी सुरक्षित रूप से गन्तव्य स्थान पर पहुँचा देता है। इसी प्रकार अनघड़, असंस्कृत या अकुशल या प्रमादी व्यक्ति अपनी आध्यात्मिकसाधनारूपी गाड़ी को त्रिविधयोगों का दुरुपयोग करके पतन के गर्त में डाल देगा अथवा अधबीच में ही जिन्दगी को बेकार एवं नष्ट-भ्रष्ट कर डालेगा। परन्तु जो अध्यात्म-साधनारूपी गाड़ी को चलाने में कुशल प्रशिक्षित और सुसंस्कृत है, अप्रमादी है, वह अपनी साधनारूपी गाड़ी को त्रिविधयोगों के द्वारा सम्यक् संचालन करके सुरक्षित रूप से मोक्षरूपी साध्य की प्राप्ति कर लेगा, अन्य अनेक भव्य आत्माओं को साध्य की प्राप्ति कराने में निमित्त बनेगा अथवा साध्य के निकट पहुँचाने या पहुँचने में सफल होगा।
पत्थर के टुकड़े का मूल्य नगण्य है, परन्तु मूर्तिकार छैनी-हथौड़े से उसे काट-छीलकर तथा यथायोग्य घिसकर मूर्ति का रूप दे देता है, तब वही पत्थर का टुकड़ा बहुमूल्य बन जाता है। अनघड़ स्वर्णखण्ड कुशल स्वर्णकार के हाथों में दिया जाता है, तो वह उसे अपने उपकरणों से तथा स्वर्णखण्ड काट-पीटकर तपा-छीलकर नयनाभिराम आभूषण का रूप दे देता है। इसी प्रकार किसी भी वस्तु को अनघड़ से सुघड़, असंस्कृत से सुसंस्कृत बनाने का कार्य कोई देवी-देव या देवाधिदेव, भगवान या ईश्वर नहीं करते, उसे कुशल, बाहोश, पुरुषार्थी मनुष्य ही अपने त्रिविध साधनों से करता है। जिस प्रकार भौतिक साधनाओं में प्रशिक्षित
१. 'समतायोग' से भाव ग्रहण, पृ. ४१२
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