________________
ॐ बत्तीस योग-संग्रह : मोक्ष के प्रति योग, उपयोग और ध्यान के रूप में 8 ११५ 8
अपने वीर्य (आत्म-शक्ति) का पूरा-पूरा उपयोग कर लेना चाहिए। ऐसा अवसर अनुष्य-जन्म के सिवाय और कहीं नहीं मिलेगा। कर्ममल के नाशक और मोक्षसुख के आधायक जिन-जिन उपायों में जिन-जिन साधनों की आवश्यकता उन सबका निर्देश सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा ने प्रथम ही कर दिया है। अतएव अब मुझे तदनुसार अपने जीवन को सुदृढ़ रूप से संघटित करके राग-द्वेष-कषाय-मूलक वैमाविक संस्कारों का त्याग और स्वभाव में रमण करके अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप को प्रकट करना चाहिए। पर-भावों का त्याग और स्वभाव में रमण (स्वरूप स्थिति) ही आत्मानुभूति, मोक्ष-प्राप्ति, परमात्मपद की उपलब्धि की एकमात्र कुंजी है।'' धर्मध्यान-साधक की इस प्रकार की विचारधारा का मूल स्रोत यह दूसरा भेद है।
. विपाकविचय का स्वरूप और उसकी चिन्तन-पद्धति विपाकविचय-धर्मध्यान का यह तीसरा भेद है। विपाक कहते हैं-कर्मजन्य फल की। ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों के विपाकोदय (कर्मों के उदय के पश्चात् मलने वाले फल) को. जीव किस-किस प्रकार से भोगता है? इन कर्मविपाकों से टने, इन कर्मों के बन्ध को रोकने तथा कर्मों को (स्पष्ट, बद्ध निधत्त आदि रूप से बंधे हुए कर्मों को) कैसे शुभ-अशुभ में बदला जा सकता है ? कैसे सजातीय कर्म का एक-दूसरे में संक्रमण किया जा सकता है ? इत्यादि विचार तथा गुणस्थानों के आरोह क्रम से इन कर्मों से सम्बन्ध विच्छेद किस प्रकार से किया जा सकता है ? न और ऐसे समस्त विषयों को चिन्तन की मनोभूमि विपाकविचय है।
संस्थानविचय का स्वरूप और उसकी चिन्तन-पद्धति संस्थानविचय-यह धर्मध्यान का चतुर्थभेद है। संस्थान कहते हैं-लोक-रचना को। लोक कितने हैं ? उनमें कहाँ-कहाँ, कौन-कौन से जीव रहते हैं ? जाते हैं, वहाँ से दूसरे किस-किस लोक में जाते हैं ? लोक को किसने बनाया है? यह लोक प्रकृति गत स्वतः सिद्ध है। जड़ और चेतनरूप से उपलब्ध होने वाले पदार्थों का समुदायमात्र है--लोक। यह अपने नियमानुसार उत्पत्ति, स्थिति और विनाश को प्राप्त हो रहा है। लोक का यह परिवर्तन अकृत्रिम अर्थात् स्वतःसिद्ध है। इसमें जड़ और चेतन की स्व-स्वगत शक्ति के सिवाय किसी दूसरे का हस्तक्षेप नहीं है और न ही संभव है। अतः इस जड़-चेतनात्मक लोक का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य अनादि-अनन्त है। यह लोक द्रव्यदृष्टि (द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा) से सदा शाश्वत, नित्य है और पर्यायदृष्टि (पर्यायार्थिकता की अपेक्षा) से अशाश्वत, अनित्य है। संक्षेप में, यह लोक नित्यानित्य-उभयस्वरूप या परिणामि-नित्य है तथा यह लोक देव, नारक,
}. "जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. २८-२९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org