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@ बत्तीस योग-संग्रह : मोक्ष के प्रति योग, उपयोग और ध्यान के रूप में ॐ ११७ है
धर्मध्यान का महत्त्व, लाभ, शुक्लध्यानयोग्य बनने से पूर्व उपादेय इस प्रकार धर्मध्यान के उपर्युक्त चार विचयों (चिन्तनक्रमों) का संक्षिप्त स्वरूप लक्षण, आलम्वन और अनुप्रेक्षण के सहित भलीभाँति जान लेने पर धर्मध्यान के वार-बार अभ्यास से लेश्याओं की विशुद्धि परिणामों की उत्तरोत्तर आरोहण धारा में वृद्धि, वैगग्य की प्राप्ति और शुक्नध्यान की योग्यता, ये चारों वातें योग-संग्रह के साधक को सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। क्योंकि धर्मध्यान की साधना पहले किये विना, अर्थात् धर्मध्यान में निष्णात हुए विना शुक्लध्यान की योग्यता प्राप्त नहीं होती। धर्मध्यान सालम्वन और शुक्लध्यान निरालम्वन ध्यान है अर्थात् साधक पहले सालम्वन ध्यान में प्रवृत्त हुए विना निरालम्वन ध्यान की योग्यता प्राप्त नहीं कर सकता। इसी दृष्टि से शास्त्रकारों ने पहले धर्मध्यान और उसके चार भेदों एवं १२ अन्य सहायकों का विधान किया है, योग-संग्रह के साधकों के लिए। सालम्बन ध्यान के द्वारा जव चित्त में स्थिरता और एकाग्रता, प्रज्ञा में स्थिति उत्पन्न होती है, तब योगसाधक की आत्मा निरालम्बन ध्यान के योग्य बनती है। इसीलिए योगसाधक मुमुक्षुओं को विशुद्ध आत्म-तत्त्व-चिन्तन की योग्यता प्राप्त करने के लिए पहले धर्मध्यानगत वस्तुतत्त्व-वस्तुधर्म का चिन्तन करके मानसिक-बौद्धिक स्थिरता प्राप्त करनी चाहिए। ऐसा करने पर ही वह स्थूल से स्थ्य, सालम्बन से निरालम्बन और लक्ष्य से अलक्ष्य तथा भेद से ध्यान-ध्याता-ध्येय की अभेदता में प्रवेश कर सकता है। इसलिए स्थितप्रज्ञ बनने, मानसिक शान्ति, एकाग्रता, स्थिरता एवं योगों की निस्पन्दता प्राप्त करने हेतु पहले धर्मध्यान को अतीव उपयोगी और उपादेय बताया गया है।
धर्मध्यान के पश्चात् शुक्लध्यान का अभ्यास : क्यों ? धर्मध्यान के पश्चात् शुक्लध्यान का अभ्यास योगसाधक के लिए अतीव आवश्यक है, अन्यथा वह विशुद्ध आत्म-चिन्तन की क्षमता और अर्हता से सम्पन्न नहीं हो सकता। शुक्लध्यान सब ध्यानों में विशिष्ट ध्यान है।
शुक्लध्यान का अधिकारी साधक कौन ? : शुक्लध्यान के लिए पर्याप्त मानसिक बल और अत्यन्त शारीरिक बल भी अपेक्षित है। उत्तम संहनन वाला साधक ही शुक्लध्यान का अधिकारी हो सकता है, क्योंकि इस ध्यान में जितना मानसिक बल, मानसिक स्थिरता अपेक्षित है, उतना ही शारीरिक बल भी अपेक्षित है। पर्याप्त मानसिक स्थिरता, धैर्य, साहस और शक्ति के बिना शुक्लध्यान की अर्हता नहीं आती। और पर्याप्त मानसिक बल, धैर्य, गाम्भीर्य, स्थैर्य और साहस का संचय तब तक शक्य नहीं है, जब तक साधक के शरीर का १. 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. २६, ३१
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