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बत्तीस योग-संग्रह : मोक्ष के प्रति योग, उपयोग और ध्यान के रूप में ॐ ११३
योग के अष्टांगों में ध्यान का महत्त्व वस्तुतः ध्यान योग के अन्य अंगों की अपेक्षा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है। भगवान महावीर ने ध्यान को आभ्यन्तरतप वताकर विस्तृत चर्चा की है। 'स्थानांगसूत्र' में शुभध्यान के धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये दो प्रकार उपादेय वताये हैं।
प्रबलता से कर्मक्षय करने में ध्यान ही सक्षम आचार्य जिनदास ने ध्यानद्वय को इसलिए योग-संग्रह के ३२ प्रकारों में परिगणित किया है कि ध्यान से कर्मों का क्षय अत्यन्त प्रबलता से होता है। उसके प्रकाश से रागादि अन्धकार का नाश अत्यन्त तीव्रता से होता है। पापराशि को भस्म करने के लिए ध्यान जाज्वल्यमान अग्नि के सदृश है। उत्तरोत्तर असंख्यात-असंख्यातगुणी सकामनिर्जरा करने के लिए ध्यान बहुत बड़ा मोक्ष साधन है। ध्यान से निष्पन्न होने वाली एकाग्रता से आध्यात्मिक विकास में अपूर्व प्रगति होती है। आत्म-स्वरूप में रमण करने के लिए, परमात्मपद की प्राप्ति के लिए, आत्म-गुणों को अनावृत करने के लिए ध्यान-शुक्लध्यान प्रबल साधन है। ___ जैनागमों में ध्यान का विस्तृत वर्णन करने के साथ-साथ उसकी आत्म-कैवल्य = आत्म-निर्वाण के साथ अतिनिकटता प्रगट की गई है।
धर्मध्यान और शुक्लध्यान का संक्षिप्त परिचय . धर्म और शुक्लध्यान के विषय में हम अन्य निबन्धों में काफी प्रकाश डाल चुके हैं। ये दोनों ध्यान मोक्ष के साधक होने से सुध्यान कहलाते हैं। ये दोनों सर्वथा उपादेय हैं। फिर भी संक्षेप में यहाँ उनके स्वरूप और प्रकार के विषय में प्रसंगवश परिचय देना उचित रहेगा।
धर्मध्यान का स्वरूप और चार प्रकार जिस चिन्तन में केवल. कर्मक्षयकारक धर्म को प्रधान स्थान प्राप्त हो उसे धर्मध्यान कहा गया है। धर्मतत्त्व के स्वरूप का चिन्तन मुख्यतया आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान (लोकरचना) पर आधारित होने से धर्मध्यान का फलितार्थ होता है-आज्ञा, · अपाय, विपाक और संस्थान आदि के सतत एकाग्रतापूर्वक चिन्तन करना। इन चारों पर धर्मध्यान निर्भर होने से धर्मध्यान के चार प्रकार होते हैं।
१. 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भावांश ग्रहण, पृ. २० २. धर्मध्यान के चार आलम्बन, चार अनुप्रेक्षाएँ, चार लक्षण
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