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* बत्तीस योग-संग्रह : मोक्ष के प्रति योग, उपयोग और ध्यान के रूप में ® १०९ 8
अपने ध्येय से विचलित (अधीर) न होना, (३०) संग (आसक्ति) का परित्याग करना, (३१) प्रायश्चित्त ग्रहण करना (आत्म-शुद्धि करना), (३२) अन्तिम समय में संलेखना करके (समाधिमरण करके) आराधक बनना। ये बत्तीस अशुभ योग से निवृत्तिरूप संवर अथवा प्रशस्त योग की साधना के निमित्त कारण हैं, साथ ही मोक्ष से जोड़ने वाली निर्जरा के भी साधन हैं। इन्हें आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज ने मोक्ष के साधन योग्य बत्तीस योग-संग्रह कहा है।
ये बत्तीस योग-संग्रह : संवर-निर्जरा-मोक्ष-प्रापक ___ इन बत्तीस योग-संग्रहों का सूक्ष्म रूप से अवलोकन-मनन-अनुप्रेक्षण करने पर यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि इनमें से कई योग तो आस्रवनिरोधरूप अथवा
अशुभ योग-निरोधरूप संवर से सम्बन्धित हैं, कई आंशिक रूप से (एकदेश से) कर्मों के क्षय के कारणभूत होने से निर्जरा (सकामनिर्जरा) से सम्बन्धित हैं, जैसेआलोचना (प्रायश्चित्त तप का प्राथमिक अंग), आपत्ति आने पर समभावपूर्वक धर्म में दृढ़ता रखना, तितिक्षा, विनय, व्युत्सर्गतप, प्रायश्चित्तकरण, संलेखना की आराधना आदि सकामनिर्जरा और उत्कृष्ट रसायन आये तो सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष के हेतु हैं। संवर और निर्जरा ये दोनों कर्मों के आगमन का निरोध और अंशतः कर्मक्षयरूप होने से साधक मोक्ष को मोक्ष के निकट पहुँचाने वाले अथवा आंशिक मोक्ष (कर्ममुक्ति) के कारण हैं।
'योग' शब्द समाधि और संयोग दोनों अर्थों में श्रमणसंधीय प्रथम पट्टधर आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज ने 'योग' शब्द के पूर्वोक्त दोनों अर्थों का निर्देश करते हुए कहा है-"शब्दशास्त्रानुसार युज् धातु से घञ् प्रत्यय लगकरं 'योग' शब्द निष्पन्न होता है। युज् नाम के दो धातु हैं, एक समाध्यर्थक है, दूसरा संयोगार्थक। अतएव योग शब्द से (यहाँ) समाधि और संयोग ये दोनों अर्थ फलित होते हैं। (जैनशास्त्रों एवं ग्रन्थों में) इन दोनों अर्थों में योग १. (क) बत्तीसं जोगसंगहा प. तं.-(१) आलोयण, (२) निरवलावे, (३) आवई-सुदढ-धम्मया,
(४) अणिस्सियोवहाणे य, (५) सिक्खा, (६) निप्पडिकम्मया, (७) अण्णायया, (८) अलोभे य, (९) तितिक्खा, (१०) अज्जवे, (११) सुई, (१२) सम्मदिट्ठी, (१३) समाही य, (१४) आयारे, (१५) विणओवए, (१६) धिईमई य, (१७) संवेगे, (१८) पणिही, (१९) सुविही, (२०) संवरे, (२१) अत्तदोसोवसंहारे, (२२) सव्वकाय-विरत्तया, (२३) पच्चक्खाणे, (२४) उत्तरगुण विसय, (२५) विउसग्गे, (२६) अप्पमादे, (२७) लवालवे, (२८) ज्झाण-संवर-जोगे य, (२९) उदएमारणंतिए, (३०) संगाणं च परिण्णाया, (३१) पायच्छित्त-करणेऽवि य,
(३२) आराणाय मरणंते; (एए) बत्तीसं जोगसंगहा। -समवायांगसूत्र, समवाय ३२ (ख) 'बत्तीसाए जोगसंगहेहिं'-श्रमणसूत्र (उपाध्याय अमर मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. २९९ (ग) “जैनागमों में अष्टांगयोग' (स्व. आचार्य श्री आत्माराम जी.म.) से भाव ग्रहण, पृ. ११
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