________________
ॐ १०४ ® कर्मविज्ञान : भाग ८ *
यहाँ मोक्ष (सर्वकर्ममुक्तिरूपी मोक्ष या संवर-निर्जरारूप आंशिक मोक्ष) रूप साध्य की प्राप्ति के साधनरूप में हम जिस योग का विवेचन या विश्लेषण करने जा रहे हैं, वह योग है-प्रशस्त योग या शुभ योग अथवा शभोपयोग और शुद्धोपयोग। यद्यपि सैद्धान्तिक दृष्टि से काय, वचन और मन से होने वाले कर्म (व्यापार) को योग कहकर उसे आस्रव कहा गया है। उसी के दो प्रकार बताये गये हैं-शुभ योग (शुभ्रासव) को पुण्यबन्धरूप और अशुभासव को पापबन्धरूप कहा गया है;' तथापि आचार्यों ने अशुभ योग से निवृत्ति को शुभ योगसंवर (अर्थात् अशुभ कर्मों के निरोधरूप) माना है, शुभ योग में प्रवृत्ति को संयम में परिगणित किया है अथवा, शुद्धोपयोगरूप साधन का ग्रहण किया है। शुभ योगों या प्रशस्त योगों अथवा शुद्धोपयोग में संचरणरूप योग ही मोक्षरूप साध्य की या संवर-निर्जरारूप लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उपादेय है। आचार्य अभयदेव ने 'समवायांगसूत्र वृत्ति' में योग-संग्रह के सन्दर्भ में ऐसा ही अर्थ किया है जो साधन (मन-वचन-कायरूप) मोक्षरूप साध्य से जोड़े जाते हैं वे योग हैं-मन-वचन-काया के व्यापार हैं। वे योग यहाँ प्रशस्त (शुभ) या शुद्ध ही विवक्षित हैं। ये विविध प्रशस्त या शुद्ध योगरूप साधन मोक्षरूप साध्य को प्राप्त करने के लिए योग्य हैं, उचित हैं। स्वकीय शुभ पुरुषार्थ के बिना अनायास कुछ भी प्राप्त नहीं होता
जैनधर्म या जैनदर्शन तथा इसके समकक्ष कुछ अन्य दर्शन एवं धर्म भी यह मानते हैं कि संसार में न तो कुछ अनायास ही, बिना पुरुषार्थ किये प्राप्त होता है
और न ही भगवान, देव-देवी, अवतार या परमात्मा से याचना करने से प्राप्त होता है और न दैव, भाग्य आदि भरोसे बैठे रहने से. या अप्रत्याशित रूप में भी कुछ मिलता है। मोक्षरूप साध्य भी देव-देवी, भगवान, अवतार, परमात्मा या दैव, भाग्य आदि से याचना करने या इनके भरोसे बैठे रहने से प्राप्त होता है और बिना पुरुषार्थ किये अनायास ही, अप्रत्याशित भी प्राप्त होता है। साधकात्मा (जीव) को प्राप्त हुए त्रिविध योगरूप साधनों द्वारा शुभ या शुद्धरूप में अध्यात्म-साधना में स्वयं पुरुषार्थ करने से ही मोक्षरूप साध्य या संवर-निर्जरारूप धर्म के उपार्जन से कर्मक्षयरूप आंशिक मोक्ष या सर्वांशतः मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो लोग दैव या भाग्य आदि के कारण अनायास ही साध्य-सिद्धि प्राप्त होने की बात करते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि दैव या भाग्य भी स्व-कृत पूर्व पुरुषार्थ या पूर्वकृत साधना के ही फल हैं। साधना से ही सांध्य-सिद्धि की बात ही अन्ततोगत्वा सभी को माननी
१. काय-वाङ्-मनःकर्म योगः, स आम्रवः। शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य॥
-तत्त्वार्थसूत्र, अ. ६, सू. १-३ २. 'श्रमणसूत्र' (उपाध्याय अमर मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. २९९-३०० ३. युज्यन्ते इति योगाः = मनोवाकाय-व्यापारास्ते चेह प्रशस्ता एव विवक्षिताः। -समवायांग वृत्ति
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org