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बत्तीस योग-संग्रह : मोक्ष के प्रति योग, उपयोग और ध्यान के रूप में
साधन ठीक न हों तो साध्य - प्राप्ति नहीं हो सकती.
मशीन चाहे जितनी बड़ी हो, नामी कम्पनी की बनी हुई हो, परन्तु यदि उसके कलपुर्जे ठीक न हों, बिगड़ गये हों, उन्हें जंग खा गया हो अथवा वे चलते-चलते ठप्प हो जाते हों, तो उस मशीन से उत्पादन का लक्ष्य पूर्ण नहीं होता, बल्कि कभी-कभी उत्पादन की क्वालिटी खराब हो जाती हो अथवा उत्पादन बिलकुल ठप्प हो जाता है। इसी प्रकार साधकात्मा के पास अध्यात्म या शुद्ध सद्धर्म (आत्म-धर्म) साधनारूपी यंत्र चाहे जितना उच्च हो, प्रसिद्ध हो, वीतराग जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित हो, किन्तु उसके पालन- आचरण - संचालन के लिए प्राप्त मन, वचन, काया, इन्द्रिय आदि साधनरूप कलपुर्जे ठीक न हों, अप्रशस्त हों (खराब हों), अध्यात्म-साधना या सम्यग्दर्शनादि या श्रुत चारित्ररूप सद्धर्म की साधना के सम्मुख चलने के बजाय, विपरीत दिशा में, विषय-वासनाओं या कषायों अथवा राग-द्वेष-मोह की ओर चलते हों तो उससे मोक्ष (सर्वकर्ममुक्ति) रूपी साध्य या 'संवर-निर्जरा उपार्जन (उत्पादन) का लक्ष्य पूर्ण नहीं हो सकता । अध्यात्म-साधना या. सद्धर्म-साधना द्वारा मोक्षरूपी साध्य - प्राप्ति या संवर - निर्जरा के उपार्जन का लक्ष्य तभी पूर्ण हो सकता है, जब अध्यात्म-साधना या सद्धर्म-साधना के लिए जीव (आत्मा) को मिले हुए मन-वचन-काययोग रूप पुर्जे व्यवस्थित, साफ, शुभ या शुद्ध हों, साधना के अभिमुख हों, बाहर के विषयों को या परभावों-विभावों को छोड़कर . अन्तरमुखी या स्वभाव- सम्मुख हों, अध्यात्म-साधना की दिशा में कार्य करते हों ।
जैनदर्शन में योग का प्रचलित अर्थ और उसके दो रूप
कर्मविज्ञान में योग का अधिकतर प्रचलित अर्थ है - मन-वचन-काया का व्यापार, मानसिंक-वाचिक-क़ायिक प्रवृत्ति या मन-वचन-काया द्वारा होने वाली क्रिया । यह त्रिविधयोग मुख्यतया दो प्रकार का है - शुभ योग और अशुभ योग, 1. दूसरे शब्दों में कहें तो प्रशस्त योग और अप्रशस्त योग । एक तीसरा प्रकार है, जो आत्म-भावों से सीधा सम्बन्धित है, उसे कहते हैं - शुद्धोपयोग । इस दृष्टि से उपयोग के तीन प्रकार किये हैं-शुभोपयोग, अशुभोपयोग एवं शुद्धोपयोग ।
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