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समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल ४५
मैत्रीभावना-साधक समतायोग को समृद्ध कैसे करे ?
मैत्रीभावना-साधक सर्वप्राणियों का हित चिन्तन करता है' वह स्वयं किसी के प्रति पक्षपात, आसक्ति या मोहपूर्वक रागभाव से न तो मित्रता बाँधता है और न ही किसी के प्रति घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, रोष आदि भावों से प्रेरित होकर वैर-विरोध करता-कराता है। न ही अपनी ओर से किसी को विरोधी या अन्धानुरागी बनने की प्रेरणा या प्रोत्साहन देता है। साथ ही वह केवल अपने माने हुए एक धर्म-सम्प्रदाय, मत, पंथ, वर्ग, जाति, देश, वेश, भाषा, प्रान्त, राष्ट्र के प्रति ही मैत्री की भावना और तदनुरूप व्यवहार न करके, समस्त धर्म-सम्प्रदायों, मतों, पंथों, वर्गों, जाति, देश, वेश, भाषा, प्रान्तों, राष्ट्रों या दर्शकों के प्रति विश्व- मैत्री की सद्भावना रखे, उनका हित- चिन्तन करे, नय की दृष्टि से भले ही वह अपने सम्प्रदाय आदि का विशिष्ट गुणकीर्तन करे, परन्तु दूसरे सम्प्रदाय आदि के प्रति उपेक्षा न करे, उनके हितों एवं गुणों का चिन्तन करे, सद्भाव रखे। तभी समतायोग समृद्ध हो सकता है, उसके जीवन में। तभी वह सामायिक के प्रभाव से संवर और निर्जरा का उपार्जन कर सकेगा।
चार कोटि के प्राणियों के साथ समतायुक्त व्यवहार कैसे-कैसे हो ?
इस अनन्त जीवों से परिपूर्ण तथा विषमताभरे संसार में सभी जीवों या सभी मनुष्यों की आत्मा निश्चयदृष्टि से स्वरूप की अपेक्षा से एकसमान हो हुए भी व्यवहारदृष्टि से अपने-अपने शुभाशुभ कर्मानुसार शुभ -अशुभ गति, योनि, जाति, शरीर, मन, वचन, प्राण, इन्द्रियाँ एवं अंगोपांग आदि तथा प्रकृति, पर्याप्ति, मनःस्थिति, परिस्थिति, अवस्था आदि का संयोग मिलता है। उन प्राणियों में कई अच्छे, शान्त स्वभावी, सहृदय, हितैषी, पुण्यात्मा एवं तन-मन से स्वस्थ होते हैं, कई प्राणी या व्यक्ति दुःखित, पीड़ित, संत्रस्त, अभावग्रस्त एवं दीनता - हीनतायुक्त भी होते हैं, कई पुण्यवान्, गुणवान्, परोपकारकर्मठ, स्वार्थत्यागी, तपस्वी, ज्ञानी, विद्वान्, रत्नत्रयसाधनाशील तथा आध्यात्मिक विकास में अग्रसर होते हैं और ऐसे भी कई जीव या व्यक्ति होते हैं, जो क्रूर हैं, सामाजिक, नैतिक नियमों के विरुद्ध चलने वाले, पापपंक में लिप्त, दुष्ट, दुर्जन, विरोधी या आतंकवादी भी हैं। इन चारों कोटि के प्राणियों या व्यक्तियों से एक या दूसरे प्रकार से समतायोगी साधक का वास्ता पड़ता है, एक-दूसरे से सहयोग देना-लेना होता है।
केवल मैत्री नहीं, प्रमोद, कारुण्य एवं माध्यस्थ्यभावना भी आवश्यक है। ऐसी स्थिति में उनके साथ समतायोगी का व्यवहार केवल मैत्री से नहीं चलता जो क्रूर, विरोधी या विपरीत वृत्ति प्रवृत्ति वाले हैं, उनके साथ माध्यस्थ्यभाव रखना
१. परहितचिन्ता मैत्री
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